Friday, 13 December 2024

रवि मौन... ग़ज़ल ...ज़िंदगी तुझ से बिछड़ के भी तो गुज़री है मगर....

ज़िन्दगी तुझ से बिछड़ के भी तो गुज़री है मगर
किस को समझाऊँ कि ये कैसे कटा मेरा सफ़र

दूर से आती सदा देती है दस्तक दिल पर
याद आते हैं मुझे झूले, ठिठौली, वो शजर

आसमाँ ऊँचा बहुत, गहरा समन्दर इतना
दोनों यकरंग ही हैं, इसलिए हैरान बशर

इतना शर्मिंदा हूँ इंसान की करतूतों पर
कैसे पहचानूँगा, शैतान अगर आया नज़र

यूँ तो इक उम्र मेरी बीती है क़स्बों में 'मौन'
 कैसे भूलूँगा भला गाँव की सुनसान डगर 

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