Wednesday, 1 January 2025

ग़ज़ल. हाफ़िज़ ईरानी. तर्जुमा. रेवती लाल शाह एवम् रवि मौन

 अलाया ऐ हस्साक़ी इदर का न ब हमफ़िलहा
कि इ'श्क़ आसाँ नमूद अव्वल वले उफ़्ताद मुश्किलहा

सुर्ख़ तल्ख़ मय भर कर मुझको साक़ी दे  प्याला
प्यार लगा आसाँ पहले पर अब मुश्किल  दोबाला

ब बू-ए-नाफ़ः कि आख़िर सबा ज़ तुर्रः बिकुशायद
ज़ ताबे- जा' दे-मुश्कीनश चि ख़ूँ उफ़्ताद दर दिलहा

ये ख़ुशबू नाफ़ की है जब सबा बिखराएगी गेसू
ताब कस्तूरी ज़ुल्फ़ों की जमा दे ख़ून दिल वाला

ज़ि मय सज्जाद रंगीं कुन गर्त पीरे-मुग़ाँ गोयद
कि सालिक़ बेख़बर न बुवद ज़ राहे-रस्में-मंज़िलहा

सज्जादा मय से रंगीं कर तुझे पीरे मुग़ाँ कह दें
कब अनजान रहबर मंज़िल-ओ' दस्तूर ने पाला

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