Thursday, 29 October 2020

कठोपनिषद पद्यानुवाद द्वितीय अध्याय व्याख्या कार :स्वामी चिन्मयानन्द एवं सर्वपल्ली राधाकृष्णन ।....

        प्रथम वल्ली

परांचि खानि व्यतृणत्स्वयम्भू_
स्तस्मात्परांपश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष_
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ।

इन्द्रियों को बहिर्मुख कर नष्ट उनको कर दिया। 
देखतीं बाहर कब अन्तरात्मा देखा किया।
 इन्द्रियों को रोक कर अमृतत्व की इच्छा करे। 
धीर व्यक्ति वही है जो अंतरात्मा लख सके।

पराचः कामाननुयन्ति बालास्ते
मृत्योर्यन्ति विततस्य पाशम् ।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा
ध्रुवम ध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते।। 2।।

बाह्य भोगों में लगा नर फँसे मृत्यु पाश में। अमरत्व को ध्रुव जान रहता धीर अन्य तलाश में।
काम कर्म व अविद्या तीनों हृदय की ग्रंथियाँ। 
इनके फलों को भोगने को निम्न इतनी  योनियाँ। 
जो धीर व्यक्ति सचेत रहें विवेक से औ' ज्ञान से।
सीमित नश्वर अस्थिर इन्द्रिय भोग इच्छा से परे। 
करते दमन वे इन्द्रियों का कर्म काम व अविद्या।
जब नष्ट होते फैलती हैं ज्ञान की तब रश्मियाँ।

येन रूपं रसं गन्धं
शब्दान् स्पर्शांश्च मैथुनान् ।
एतैनेव विजानाति
किमत्र परि शिष्यते ।। एत द्वै तत् ।। 3।।

आत्मा द्वारा मिलता नर को इन्द्रिय सुख का ज्ञान। 
अविज्ञेय नहीं इस से कुछ भी इतना लो तुम जान। 
जीवात्मा ही परमात्मा है परमात्मा जीवात्मा।
 यह वही है वह यही है करें भ्रम का ख़ात्मा।

स्वप्नान्तं जागरितान्तं
चोभौ येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं
मत्वा धीरो न शोचति।। 4।।

होता प्रतीत जो स्वप्न में जाग्रत अवस्था में दिखें। 
आत्मा लखे यह जान कब धीर जन शोक करें। 
अपूर्णता के भाव से ही जन्म लेती कामना।
किस भाँति होवे पूर्ण है यह इन्द्रियों से सामना।
फल प्राप्त या अप्राप्त इच्छा दुःख का कारण बने। 
जब जान लेता ब्रह्म हूँ तब ही पुरुष पूरण बने। 

य इमं मध्वदं वेद
आत्मानंद जीवमन्तिकात्। 
ईशानं भूतभव्यस्य
न ततो विजुगुप्सते।। एतद्वै तत्।। 5।।

हो अभय भूत भविष्य शासक आत्मा को जानता। 
प्राण धारक कर्मफलभोक्ता उसी को मानता।

यः पूर्व तपसो जात_
मदभ्यः पूर्वमजायत। 
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं
यो भुतेभिरव्यपश्यत।। एतद्वै तत्।। 6।।

भूतों से पहले तप से जो उत्पन्न हुए। 
बुद्धि रूपी गुहा में हो प्रविष्ट उसे लखे। 
देखता जो इस तरह वह देखता है ब्रह्म को
निश्चय यही है देखना जो चाहता तू ब्रह्म को।

या प्राणेन सम्भवत्य_
दितिर्देवतामयी ।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं
या भूतेभिर्व्यजायत।। एतद्वै तत्।। 7।।

प्राण रूप से प्रकट हो देवमाता अदिति। 
बुद्धि रूपी गुहा में होती प्रतिष्ठित स्थिति। 
पैदा हुई है पंचभूतों संग प्रकृति रूप है। 
जो जानता है अदिति को यह तत्व ब्रह्म स्वरूप है।

अरण्योर्निहितो जातवेदा
गर्भ इव सुभृतो गर्भणीभिः। 
दिवे दिवे ईड्यो जागृवद्भिर्ह
विष्भद्भिर्मनुष्येभिरग्निः।। एतद्वै तत्।। 8।।

पोषित हुई है गर्भ सम जो अग्नि अरणी बीच में। 
नित्यप्रति है स्तुत्य अप्रमादी नर बीच में।
होम सामग्री सहित करते पुरुष जिसकी स्तुति।
वह योग्य अग्नि ब्रह्म है करते पुरुष जिसकी स्तुति।

यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं
यत्र च गच्छति। 
तं देवाःसर्वे अर्पितास्तदु
नात्येति कश्चन।। एतद्वै तत्।। 9।।

होता जहाँ से उदित सूर्य व जहाँ होता लीन है। 
वह ब्रह्म है चैतन्य सत्स्वरूप है प्राचीन है।  व्यक्त करें अनित्य जगत वह ही सूर्य देव हैं।
 इन पंचभूतों के अधिष्ठाता कहाते देव हैं।

यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह ।
मृत्योः स मृत्युमाप्नोति न इह नानेव पश्यति।। 10।।

जो तत्व हैं इस देह में वह तत्व ही अन्यत्र हैं। 
अन्यत्र हैं जो तत्व वह इस देह में सर्वत्र हैं। यह तत्व है बस एक पर देखे यहाँ अनेक। 
जन्म मृत्यु के चक्र में लेता जन्म अनेक।
आत्मज्ञानी पुरुष देखे जगत को इस रूप में। 
है अधिष्ठाता नियन्ता ब्रह्म एक ही रूप में।

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्योः स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति।। 11।।

आत्मा मन से प्राप्त हो तत्व यही है एक।
जन्म मृत्यु पाता रहे देखे अगर अनेक। 
धीरे-धीरे नियन्त्रित चित्त किए मन शान्त। 
आध्यात्मिक जिज्ञासु हो उत्तर ढूँढे शान्त। 

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति। 
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते।। 
एतद्वै तत्।। 12।।



अंगुष्ठ के परिमाण वाला बसे तन के मध्य में। 
भूत और भविष्य शासक आत्मा तन मध्य में।
रक्षा न करे शरीर कीअनुसरण आत्मा का
करे। 
निश्चय यही ऐ ब्रह्म तत्व न और कुछ इसके परे।

अंगुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः। 
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः।। 
एतद्वै तत्।। 13।।

धूमरहित निर्मल निश्चल ज्योति तीनों काल में। 
अंगुष्ठमात्रः पुरुष लखे साधक सदा हर हाल में। 
सब प्राणियों में आज है कल भी रहेगा यह सदा।
 विकसित करे निज ध्यान तो मिल जाय उसमें सर्वदा। 

यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति। 
एवं धर्मान्पृथक् पश्यन्तानेवानुविधावति।। 
।। 14।।

दुर्गम पर्वत पर बरसा जल नीचे बह कर जाय। 
अनियन्त्रित मन कामनावश इसे रोक न पाय। 
देख  वस्तुओं को पृथक उन सम ही हो जाय। I 
करें अगर एकत्र तो जल लाभप्रद हो पाय। 

यथोदकं शुद्ध शुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम। 
।। ।5।। 

मिथ्या भ्रम संशय मिटें रहे शुद्ध जब ज्ञान। तब होता है व्यक्ति को परमात्मा का भान। मिलें शुद्ध जल तो रहें दोनों एक  समान। 
ज्ञानी मुनि और आत्मा यूँ ही मिलते आन।

          द्वितीय वल्ली

पुरमेकादशद्वारमजस्यावक्रचेतसः। 
अनुष्ठान न शोचति विमुक्तस्य विमुच्यते। 
।। 1।।

नित्य अजन्मा आत्मा इसकी नगरी ग्यारह द्वार। 
मुक्त अविद्या बंधन तो आत्मा से साक्षात्कार। 
जन्म मरण के चक्र से छुटे पाए वह नर मुक्ति। 
नचिकेता यह ब्रह्म है वही पूछी जिसकी युक्ति। 

हंसः शुचिषद् वसुरन्तरिक्षस_
द्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत् ।
नृषद् वरसदृतसद व्योमसदब्जा
गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं बृहत् ।2।

सूर्य रूप आकाश में अंतरिक्ष में वायुरूप। अग्नि रूप में धरा पर घर में अतिथि स्वरूप। 
रहता देवों नरों में तथा यज्ञ आकाश। 
जलजा गोजा शैलजा ऋतजा सत्यप्रकाश। 

ऊर्ध्वं प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति। 
मध्ये वामनमासीनं विश्व देवा उपासते। 3।

ऊपर जाता प्राण ले नीचे लाय अपान। मध्यस्थित इस पूज्य का करें देव सम्मान। 

अस्य विस्रं समान्
 शरीरस्थस्य देहिनः ।
देहाद् विमुच्यमानस्य
किमत्र परिशिष्यते ।एतद्वै तत्।। 4।।

तजता जब इस देह को देही हो अवसान। 
पंचतत्व में जा मिलें तुच्छ देह को मान। 

न प्राणेन न अपानेन मर्त्य  जीवति कश्चन।
इतरेण तु जीवन्त यस्मिन्नेतावुपाश्रितौ। 5।

जीता नहीं कोई मनुज भी प्राण से न अपान से। 
जब आत्मा तन छोड़ता तो मनुज जाता जान से। 

हन्त त इदं प्रवक्ष्यामि गुह्यं ब्रह्म सनातनम्
यथा च मरणं प्राप्य आत्मा भवति गौतम। 
।। 6।।

जीवात्मा तन छोड़ती तब हो जाती ब्रह्म। 
कर्म ज्ञान आधार पर मिले दूसरा जन्म। 

योनिमन्येप्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः ।
स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम्।

देहधारी हो कि स्थावर कर्म करते हैं नियत ज्ञान क्या अर्जित किया इस देह से देते सुमत। 

या एष सुप्तेषु जागर्ति
कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः। 
तदेव शुक्र तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते। 
तस्मिन्लोकाः श्रिताः सर्वे
सदुनात्येति कश्चन। एतद्वै तत्।। 8।।

जाग्रत स्वप्निल सुप्तावस्था जीवात्मा के रूप। 
रहे अलिप्त सदा अनुभव से आत्मा का हर रूप। 
विषय वासना ईर्ष्या स्वार्थ आदि सब वृत्त
देह लिप्त हो आत्मा रहता सदा अलिप्त। 

अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टोरूपं
रूपं प्रतिरूप बभूव। 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। 9।।

हो प्रविष्ट जब अग्नि विश्व में हर रूप के अनुरूप हो। 
भीतर बाहर रहे आत्मा प्राणी रूप के अनुरूप हो। 

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूप बभूव। 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपं बहिश्च।। 10।।

जिस भाँति वायु प्रविष्ट हो इस लोक में बहुरूप हो।
सब प्राणियों का अन्तरात्मा बाह्य हो बहुरूप हो। 

सूर्य यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न
लिप्यतेचाक्षुषैर्बाह्यदोषैः। 
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्यः।। 11।।

सूर्य नेत्र इस लोक का करता लोक प्रकाश। 
किन्तु नेत्र के दोष का होता तनिक न भास। 
दुःख भरे संसार को भोगे यहाँ शरीर। 
लिप्त न होता आत्मा रहे नित्य गम्भीर। 

एको वशी सर्वभूतान्तरात्मा 
एकं रूपं बहुधा यः करोति। 
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा_
स्तेषां सुखं शाश्वत नेतरेषाम्।। 12।।

सर्वभूत अन्तरात्मा सबको रखे अधीन। 
एकरूप बहुरूप हो होता सर्वाचीन। 
जो देखे इस रूप में आत्मा ले आनन्द। 
धीर विवेकी और स्थिर नर पाता आनन्द। 

नित्य नित्यानां चेतनश्चेतनाना_
मेको बहूनां यो विद्धाति कामान् ।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां
शान्तिःशाश्वती नेतरेषाम् ।। 13।।

परिवर्तन है नियम जगत का जाने यह सब कोय। 
नित्य रूप अन्तरात्मा बिना न सम्भव होय। 
कर्मफलों के रूप में सुख दुःख पाती देह। 
आत्मा साक्षी की तरह रहता अपरिमेह। 

तदेतदिति मन्यन्ते अनिर्देश्यं परमं सुखम् ।
कथं नु तदविजानीयां किमु भाति विभातिवा।। 14।।

धीर पुरुष के लिए परम सुख यही आत्म 
विज्ञान। 
होता है या नहीं प्रकाशित कैसे पाऊँ जान? 

न तत्र सूर्य भाति न चन्द्र तारकं
नेमा विद्युत भान्ति कुयोऽयमग्निः। 
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।। 15।।

वहाँ प्रकाशित होता सूर्य न चन्द्र और न तारे। 
विद्युत चमके और न करती अग्नि वहाँ उजियारे। 
स्वयं प्रकाशित होता आत्मा उसकी कांति महान। 
करता सबको प्रकाशित आत्मा प्रकाशमान। 

          तृतीय वल्ली

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्शाख
एषोऽश्वत्थ सनातनः। 
तदेव शुक्र  तद ब्रह्म
तदेवामृतमुच्यते। 
तस्मिन्लोकाः श्रिताः सर्वे
तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्।। 1।।

सर्वोत्तम व पवित्रतम मूल वृक्ष का भाग। 
कल न रहेगा जो वही है अश्वत्थ नर जाग। है अनित्य संसार सदा से जन्म मृत्यु का फेरा। 
मूल ब्रह्म ही शुद्ध है आश्रित लोक ये तेरा। 
यदिदं किंच जगत् सर्वं
प्राण एजति निसृतम्। 
महदभयं वज्रमुद्यतं
य एतद् विदुरमृतास्ते भवन्ति।। 2।।

उदित ब्रह्म से यह जगत क्रियाशील हो जाय। 
उठे वज्र से महद्ब्रह्म को जान अमर हो जाय। 
सृष्टिगति लयबद्ध है नक्षत्र तारागण सभी।
आदेश मानें नियन्ता का जो कि सत् चैतन्य भी। 

भयादस्याग्निस्तपति भयास्तपति सूर्यः। 
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः।3।

अग्नि तपे सूरज तपे उसके भय से जाय। 
दौड़ाएं इन्द्र वायु औ'मृत्यु भय है सबहिं समाय। 

इह चेदशकद् बोद्धुं प्राक्शरीरस्य विस्रसः।
ततः सर्वेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ।4।

यदि मनुष्य अज्ञान को नष्ट नहीं कर पाता। 
आत्मज्ञान बिन जन्म मृत्यु का वही चक्र रह जाता। 
स्वप्न रूप अज्ञान है जाग्रत रूपी ज्ञान। 
केवल मनु तन में कटे तेरा यह अज्ञान। 
स्वत्व भाव से करले नर आत्मा से साक्षात्कार। 
जीवभाव मिट जाय मिटे इस तन का अहंकार।

यथादर्शे तथाऽत्मनि
यथा स्वप्न तथा पितृलोके। 
यथाप्सु परीवददृशे तथा गन्धर्वलोके
छायातपयोरिव ब्रह्मलोके।। 5।।

दिखता है दर्पण में जैसे। 
आत्मा में ब्रह्म दिखे वैसे। 
पितृलोके में स्वप्न सम गंधर्वलोक में जल सम है अस्पष्ट। 
ब्रह्म लोक में है प्रकाश और छाया सदृश स्पष्ट। 

इन्द्रियां पृथग्भावं उदयास्तमयौ च यत्। 
पृथक् उतपद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति।। 6।।

पृथक भूतों से होती  इन्द्रिय उत्पन्न विभिन्न। 
उनकी क्षय उत्पत्ति से नहीं बुद्धिमान नर खिन्न। 
आत्मा उनसे अलग है जाने यह नर धीर। 
भोगों से आबद्ध तो रहता सिर्फ शरीर। 

इन्द्रियेभ्यः परं मनः मनसःसत्वमुत्तमम्। 
सत्वादधिमहानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्।। 7।।

अव्यक्तात्तुपरः पुरुषःव्यापकोऽलिङ्ग एव च
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति। 
।। 8।।

इन्द्रिय से मन श्रेष्ठ है उससे बुद्धि श्रेष्ठ। 
महत्ततत्व उससे अधिक फिर अव्यक्त है श्रेष्ठ। 
सर्वश्रेष्ठ अलिङ्ग पुरुष जाने जो नरधीर। 
मुक्तिसाधना पूर्ण कर अमर होय नरधीर। 

न संदृशे तिष्ठतिरूपमस्य
न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्। 
हृदा मनीषा मनसाभितृप्तो
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।। 9।।

नहीं दृष्टि में ठहरता है आत्मा का रूप। 
नेत्र देख पाते नहीं अद्भुत रूप अनूप। 
मनन शक्ति से प्रकाशित इसका हृदय स्थान। 
अमर होय वो नर जिसे हो आत्मा का ज्ञान। 

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। 
बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम्।
।। 10।।

शान्त हों मन सहित जब ज्ञानेन्द्रियाँ पाँचों  यहाँ। 
निश्चेष्ट हो जब बुद्धि उसको परम गति कहते यहाँ। 

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिनद्रिय धारणाम् ।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। 11।।

स्थिर इन्द्रिय धारण को ही तो कहें धीरजन योग। 
मन द्वारा एकाग्र भाव से आत्मा से संयोग। 

नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते।
।। 12।।

मन वाणी और नेत्र से आत्मा सकें न पायँ
ऐसा है वह जो कहें और किस तरह पायँ। 

अस्तीत्येवोपलब्धस्य स्तत्वभावेन चोभयोः
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्वभावः प्रसीदति ।
।। 13।।

ब्रह्मलोक उपासना और ओम का ध्यान। 
सुख पाए उस लोक के ऐसा नर विद्वान। 
ले आलम्बन ओम का आत्मतत्व का ध्यान। 
स्वात्म भाव से समाधि हो आत्मा का भान। 
वह आत्मा है आय जब मन में ऐसा बोध। 
उसे न मिलता मार्ग में कोई भी अवरोध। 
जाने जो सम्पूर्ण सृष्टि में आत्मा को ही सार। 
उसी पुरुष को आत्मतत्व से होता साक्षात्कार। 
शान्त इन्द्रियाँ मन रहेविषयों से निवृत्त। 
होसंघर्ष न बुद्धि का पूर्ण आत्म पर चित्त। 

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते
कामा येऽस्य हृदिश्रिताः। 
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र
ब्रह्म सयश्नुते।। 14।।

छुटें हृदय की कामना सभी तभी वह धीर। ब्रह्म भाव को प्राप्त फिर होता वह नरवीर

यदा सर्वे प्रभिद्यन्ते
हृदयस्येह ग्रन्थयः। 
अथ मर्त्योऽमृतो भव_
त्येतावद्ध्यनुशासनम्।। 15।।

जब छेदित हों हृदय की ग्रन्थ सभी तो जीव। 
अमर होय उस समय ही ऐसा साधक जीव। 
काम कर्म और अविद्या का जब तोड़े पाश
होता ज्ञान प्रकाश से अमर अविद्या नाश। 
साधक को हो आत्मज्ञान तो जाने उसकी आत्मा। 
प्राणिमात्र की आत्मा है आत्मा ही परमात्मा। 

शतं चैका च हृदयस्य नाड्य_
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तमोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्यां उत्करमणे भवन्ति ।। 16।।

ब्रह्म रंध्र तक एक हृदय से नाड़ी जाती। 
ज्ञानमार्ग से यही सुषुम्ना नाड़ि कहाती। 
करें हृदय की एक सौ नाड़ी प्राणोत्सर्ग।
पाता है अमरत्व को ऊर्ध्वगमन कर वर्ग। 

अङगुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा
सदा जनानां हृदयेसन्निविष्टः ।
तं स्वाच्छरीरात् प्रवृहे_
न्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण ।
तं विद्याच्छुक्रममृतं
तं विद्याच्छुक्रममृतमिति।। 17।।

रहे जीव के हृदय आत्मा है अंगुष्ठ परिमाण। 
करे आवरण इसके बाहर धीर मुञ्ज सम जान। 
शुद्ध अमृत रूप में समझे इसे जाने इसे। 
इस आत्मा के रूप में अमरत्व को पाले इसे। 

मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा
विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम्। 
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽमूद्विमृत्युः
अन्योऽप्येवं यो विदध्यात्मनेव।। 18।।

विद्या कही मृत्यु ने नचिकेता ने सीखा उसे। 
ब्रह्म मात्र का साक्षी कर अमृत प्राप्त हुआ उसे। 
निवृत्त होकर इन्द्रियों से शुद्ध जो भी मन करे। 
ध्यान कर हृद्देश में चैतन्य का दर्शन करे। 

ॐ सह नाववतु। सह नो भुनक्तु। सह वीर्यं करवाव है। तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषाव है। 
ॐशान्तिः। शान्तिः। शान्तिः। 

साथ साथ रक्षा करें पालन भी हो साथ। 
साथ साथ विद्याध्ययन करें सभी हम नाथ
हो तेजस्वी अध्ययन बढ़े हमारी कांति। 
द्वेष करें न किसी सेॐ शान्ति शांति शांति। 






















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