Thursday, 24 December 2020

केनोपनिषद... व्याख्याकार... स्वामी चिन्मयानन्द ... हिन्दी पद्यानुवाद

शान्तिपाठ
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।। 
ॐ शान्तिः! शान्तिः! !शान्तिः!!!

शिक्षक, विद्यार्थी रहें रक्षित ॐ सदैव। 
आनन्दित हों, आपकी खोज साथ कर देव।
तन मन से कोशिश करें समझें गहरे भेद। 
तेजस्वी हों औ' सफल, हो न परस्पर भेद।। 

ॐ करें रक्षा, दैवी विपदाओं से हो शान्ति! 
घटनाएँ जो क्रूर हों, उनसे भी हो शान्ति!! 
दैविक बाधा से मिले, हम दोनों को शान्ति!!! 

ॐ आप्यायन्तु ममाङ्गानि वाक्प्राणश्चक्षुः  श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। 
सर्वं ब्रह्मौपनिषदं माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोद् निराकरणमस्त्वनिराकरणं मेऽस्तु तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्तेमयि सन्तु मे मयि सन्तु।। 

ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!! 

पुष्ट अंग हों, इंद्रियों में शक्ति का संचार। 
सभी तो है ब्रह्म, जो है उपनिषद का सार। करूँ मैं, न ब्रह्म मुझको कभी अस्वीकार। 
आनन्दित हों आत्मसात कर उपनिषदों का सार।। 

ॐ शान्तिः! शान्तिः!! शान्तिः!!! 

..... प्रथम खण्ड.... 

ॐ केनेषितं पतति प्रेषित मनः। 
केन प्राणः प्रथमः प्रैति युक्तः । 
केनेषितं वाचमिमां वदन्ति चक्षुः 
श्रोत्रं क उ देवो युनक्ति।। 1।।
 
ॐ! आलोकित मन करे ,है किस का आदेश। 
प्राण वायु आ जा रही, है किस का निर्देश।
बोलें नर जब शब्द, हों किस इच्छा आधीन। 
आँख नाक देखें सुनें, किस विधि के आधीन।। 1।।

श्रोत्रस्य श्रोत्रं मनसो मनो यद्वाचो ह वाचं स उ प्राणस्य
प्राणश्चक्षुषश्चक्षुरतिमुच्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।। 2।।

मन का मन ,वाणी की वाणी और कान का कान। 
आँख की है आँख ,है वह प्राण का ही प्राण। 
उठ सके इन्द्रिय जगत से, तज सभी अनुराग। 
धीर हो अमृत ,करे जब अहम् का भी त्याग।। 2।।

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो
न विद्मो न विजानीमो तथैतदनुशिष्यादन्यदेव
तद्विदितादथो अविदितादधि।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे।। 3।।

आँख वाक् न मन उसे, समझ सके न जान। 
कैसे फिर समझा सके उसको जो अनजान। 
है अलग वह ज्ञान से, ऊपर बहुत अज्ञान से। 
अगम है ऐसा सुना है, पूर्वजों ने ध्यान से।। 3।।

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते। 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 4।।

शब्द प्रकट न कर सकें, जो वाक् को करता प्रकट। 
न उपासना है ब्रह्म, बस चैतन्य है उसके निकट। 
चित् प्रवाहित उज्ज्वलित, केवल है आत्म प्रभाव से। 
जो चाहता है प्लवित कर दे सत्य के हर भाव से। 

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्। 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 5।।

जिस की वजह से मन समझता, मन स्वयं न समझ सके। 
केवल वही है ब्रह्म,  न कि उपासना से समझ सके। 

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति। 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 6।।

देखे न जिस को आँख पर जिस की वजह से देखती। 
नहीं सिर्फ पूजा विधि वरन है आत्म तो केवल यही। 

यच्छ्रोत्रेण न श्रृणोति येन श्रोत्रमिद ँ श्रुतम्। 
यदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 7।।

जिसे कान न सुन सकें जिस से सुनते कान। 
यही ब्रह्म है तू पूजक को ब्रह्म रहा क्यों मान। 

यत्प्राणेन न प्राणित येन प्राणः प्रणीयते। 
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।। 8।।......।। इति प्रथमः खण्डः।। 

प्राण वायु ले जिस से न कि जिस को श्वास दे। 
केवल वही है ब्रह्म न कि जो पूजा कर रहे। 
बुद्धि इन्द्रिय मन करें चेतन्य से ही काज सब। 
केवल वही है ब्रह्म साधक जान इस को आज अब। 
शब्द हैं सीमित न करते इस से अधिक बखान। 
यह छाया है ब्रह्म की अब कर अनुसंधान।। 8।।...प्रथम खण्ड समाप्त। 

........ द्वितीय खण्ड....... 

यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि नूनम् ।त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपं यदस्य देवेष्वथ नु 
मीमा ँ' स्यमेव ते मन्ये विदितम्।। 1।।

शिष्य अगर है धारणा, हुआ ब्रह्म का ज्ञान
यह देवों का ज्ञान है ब्रह्म का तनिक भान। विचरण कर तू अपने अंदर अंतःकरण निहार। 
है जो मैं का आवरण उस को तनिक उतार। 
है आलोकित आत्म यह परम सत्य से जान। 
परम सत्य को शब्द से कैसे करें बखान। 
साधक अपनी भक्ति से करता रहे प्रयास। तब जा कर छुटता कहीं मैं पर से विश्वास। हो जाता है जब उसे परम सत्य आभास। 
तब साधक करता रहे हर पल यह अहसास। 

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च। 
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च।। 2।।

ना जानूँ अच्छी तरह ना हूँ मैं अनजान। 
जाने भी जाने नहीं  हम में उस को ज्ञान।
जब यह माना है नहीं मुझको पूरा ज्ञान। 
सत्य कथन से हो रहा परम सत्य का भान। 
तब कहता ऐसा नहीं सब कुछ है अज्ञात। 
मैं 'भी' इस को जिमि संतन को ज्ञात। 

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः। 
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानतम्।। 3।।

जो समझे मैं जानता उस को है अज्ञात। 
जो समझे जानूँ नहीं उसे परमसत ज्ञात। 
बाह्य जगत का बोध इन्द्रियों के कारण ही हो पाता है। 
मैं को मैं पन को छोड़े तब ही अंतर्मन को पाता है। 
धीरे-धीरे आत्म के निकट पहुँचता आन। 
प्रभु प्रभाव औ'पराभक्ति से सके स्वयं को जान। 
साधक करता अथक साधना जागृत ज्ञान चक्षु हो जाता। 
और इसी से वह साधक अपने को परम सत्य को पाता। 

प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम्।। 4।।

माध्यम अन्तर्ज्ञान है इससे लेता सब कुछ जान। 
सच्ची शक्ति मिले आत्मा से विद्या से अमृत का दान। 
भँवर उठे ज्यों जल समूह में वैसे उठें विचार। 
जन्में बढ़ते करें नृत्य फिर हो जाता संहार। आत्मा की ही झलक से होता इनका भान। 
साक्षी है आत्मा स्वयं उसे अछूता जान। 
जागृत सुप्तावस्था औ' स्वप्नावस्था तीन। 
देखे साक्षी की तरह आत्मा रहे अलीन। 
इस साक्षी को जिस समय साधक ले पहचान। 
मैं औ' मैं पन सब मिटें बाह्य जगत के भान। 
इससे है आनन्द सत्य है साक्षी इस को जान। 
स्वयं और आत्मा मिलें परे ज्ञान अज्ञान। 

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः। 
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति।। 5।।

यदि जान ले मानव शरीर से, ब्रह्म को इस बार ही। 
जो कुछ भी पा सकता, मिला, उसका हुआ उद्धार ही। 
जाना कि मैं हूँ आत्मा, औ' देह नश्वर है यहाँ । 
वह पा गया अमृतत्व को, अब देह की चिंता कहाँ ? 
मानव जनम में जो न समझा, देह देही भेद । 
गई निरर्थक योनि यह, माँ श्रुति करतीं खेद । 
........ द्वितीय खण्ड समाप्त....... 

ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये
तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त।। 1।।

ब्रह्म ने दानव विजय की देव उल्लासित हुए। 
यह विजय दिखला रही है श्रेष्ठ योद्धा देव ही। 

त एक्षनतास्माकमेवायं विजयोऽ-
स्माकमेवायं महिमेति ।
तद्वैषां विजज्ञौ तेभ्यो ह प्रादुर्वभूव
तन्न व्यजानत किमिदं यक्षमिति।। 2।।

देव जीते युद्ध में था ब्रह्म का आभार। 
जीते हैं दानव सभी गर्वित देव अपार। 
सोचा देवों की विजय महिमा अपरम्पार। 
हर्षित गर्वित देव थे सत्य से निराधार 
प्रकट हुए आकाश में ब्रह्म यक्ष के रूप। 
देवों ने देखा न था ऐसा ब्रह्म स्वरूप। 

तेऽग्निमब्रुवञ्जातवेद एतद् विजानीहि
किमिदं यक्षमिति तथेति।। 3।।

जा कर पता लगाइए अग्निदेव ये कौन? 
माने अग्नि कि देख लें 
शक्तिपुञ्ज ये कौन? 

तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत् कोऽसीति अग्निर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीज्जातवेदा वा अहमस्मीति।। 4।।

द्रुत गति से जा अग्नि ने देखा यक्ष महान। 
कहा यक्ष ने कौन हो? जातवेद पहचान! 

तस्मिंस्त्वयि किं वीर्य मित्यपीदं सर्वं
दहेयं यदिदं पृथिव्यामिति।। 5।।

शक्ति कितनी आप में जब यक्ष ने पूछा वहीं। 
जो कुछ जहाँ है जगत में मैं भस्म कर सकता वहीं 

तस्मै तृणं निदधावेतद्दहेति। 
तदुपप्रेयाय सर्वजवेन तन्न शशाक दग्धुं
स त्त एव निववृते। 
नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति।। 6।।

तब एक तिनका सामने रख कर कहा कि जलाइए। 
मैं देख लूँ क्षमता तुम्हारी इसे जला दिखाइए। 
निज शक्ति पूरी लगा दी पर तृण जला तब भी नहीं। 
तो अग्नि लौटे कह दिया मैं जान कुछ पाया नहीं। 

अथ वायुमब्रुवन्वायवेतद् विजानीहि
किमेतद्यक्षमितितथेति।। 7।।

जानेकैसी शक्ति है यह अंबर में आज। 
वायुदेव जा कीजिए देवों का यह काज। 

तदभ्यद्रवत्तमभ्यवदत्कोऽसीति वायुर्वा
अहमस्मीत्यब्रवीन्मातरिश्वा वा अहमस्मीति।। 8।।

जा कर देखा यक्ष को पूछा उस  ने कौन? 
वायु देव हूँ मैं कहा गर्व सहित फिर मौन।

तस्मिंस्त्वयि किं वीर्यमित्यपिदं
सर्वमाददीय यदिदं पृथिव्यामिति।। 9।।

क्या कर सकते हैं उन्हें यक्ष कहें मुस्काय। 
अपने वेग प्रचण्ड से दूँ मैं शैल गिराय। 

तस्मै तृणं निदधावेतदादत्स्वेति तदुपप्रेपाय
सर्वजवेन तन्न शशाकादातुं स त्त एव निववृते नैतदशकं विज्ञातुं यदेतद्यक्षमिति।। 10।।

तिनका रख कर यक्ष ये बोलें मुझे दिखायँ
पूर्ण शक्ति औ वेग से इसको तनिक हिलायँ।
असफल हो लौटे कहा मैं न सका कुछ जान। 
देवों ने की प्रार्थना इन्द देव से आन। 


अथेन्द्रमब्रुवन्मघवन्नेतदद्विजानीहि
किमेतद्यक्षमिति तथेति तदभ्यद्रवत्तस्मात्तिरोदधे।। 11।।


यक्ष हुए अदृश्य खोजते जहँ तहँ देवाधीश। 
वहीं दिखीं तब हिमसुता उमा दिया आशीश। 


स तस्मिन्नेवाकाशे स्त्रियमाजगाम
बहुशोभमानामुमां हैमवतीं
तांहोवाच किमेतद्यक्षमिति।। 12।। 


यक्ष हुए अदृश्य खोजते जहँ तहँ देवाधीश
वहीं दिखीं तब हिमसुता उमा दिया आशीश।
पूछा उन से कौन थीं दिव्य शक्ति इस स्थान। 
परमशक्ति थीं इस जगह यक्षरूप में आन। ।। इति तृतीय खण्डः।। 

।। अथ चतुर्थ खण्ड।। 

सा ब्रह्मेति होवाच
ब्रह्मण वा एतद्विजये महीयध्वमिति
ततो हैव  विदाच्चकार ब्रह्मेति।। 1।।

इन्द्र उन्ही की शक्ति से देव भये बलवान। 
विजय उन्ही की थी जिसे अपनी लीनी मान। 

तस्माद्वा एते देवो अतितरामिवान्यान्देवान्यदग्निर्वायुरिन्द्रस्ते
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पृशुस्ते ह्येनत्प्रथमो विदाच्चकार ब्रह्मेति।। 2।।

विजय हमारी थी रही देवों की ही शान। 
गर्वभंग के वास्ते यक्ष रूप धर आन। अग्नि वायु और इन्द्र ने लेकिन किया प्रयास। 
इसीलिए तो ब्रह्म के पहुँचे इतने पास। 

तस्माद्वा इन्द्रोऽतितरामिवान्यान्देवान्स
ह्येनन्नेदिष्ठं पस्पर्श
स ह्येनत्प्रथमो विदाच्चकार ब्रह्मेति।। 3।।

इन्द्र उत्तम अन्य देवों से निकट सबसे गए। 
वे प्रथम थे जान पाए ब्रह्म सतत प्रयास से

तस्यैष आदेशो
यदेतद्विद्युततो व्यद्युतदा 3 इतीन्न्यमीमिषदा 3 इत्यधिदैवतम् ।। 4।।

इस कथा के रूप में यह ब्रह्म का विस्तार था। 
क्षण भर चमक विद्युत सदृश ही ब्रह्म साक्षात्कार था। 

अथाध्यात्मं यदेतद्गच्छतीव च मनोऽनेन
चैतदुपस्मरत्यभीक्ष्णंसङ्कल्पः।। 5।।

जब विचार हो शांत इक उठता अन्य विचार। 
है क्षणांश इस मध्य में जब नहीं कोई विचार। 
वही समय है सत्य के होता है नर पास । 
आत्मा साक्षात्कार का होय सहज आभास। 

यद्ध तद्वनं नाम तद्वनमित्युपासितव्यं
स य एतदेवं वेदाभि हैनं
सर्वाणि भूतानि संवाञ्छन्ति।। 6।।

जो उपासक कर रहा है शांत मन से भक्ति को। 
शुद्ध होता मन व पाता स्वयं ही उस शक्ति को। 

उपनिषदं भो ब्रूहित्युक्ता त उपनिषदब्राह्मी
वाव त उपनिषदमब्रूमेति।। 7।।

गुरुवर मुझ को दीजिए उपनिषदों का ज्ञान। 
शिष्य कर चुका मैं तुम्हें सारा ज्ञान प्रदान।

तस्यै तपो दमः कर्मेति प्रतिष्ठा
वेदाः सर्वाङ्गानि सत्यमायतनम्।। 8।।

तप दम कर्म स्तम्भ हैं वेद ज्ञान अनुदान। वेद स्वयं शाखा रहीं अंतिम सत्य स्थान। 

यो वा एतामेवं वेदापहत्य पाप्मानमनन्ते
स्वर्ग लोके ज्येये प्रतितिष्ठति प्रतितिष्ठति 
।। 9।।

इस तरह जो जान लेता उपनिषद के ज्ञान को। 
पाप मिट जाते मिले वह ब्रह्म से सम्मान को। 

इति चतुर्थ खण्ड। 

शान्ति पाठ... आरंभ की भाँति..... 























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