कहते जयदेव न कोई दुरेव हरे सब क्लेश ये बिरदावली।
है ये गीत गोविंद यहाँ ब्रजवृंद फिरें ब्रजभूमि मेंआनंद जी के।
इतना संगीत भरा है मीत कि नृत्य करें खजुराहो में नीके।
ब्रज की रज में ही है प्रेम पगा झरता निर्झर सा सूर पद में।
कविता कीजे तो शरण लीजे इस भूमि की आनंद के मद में।
हैं ये प्रेम के छंद इन्हें गोविंद व राधा बाँटें आधा आधा।
करें जो गान सुनें जो कान मिटें भव त्रास हरें हर बाधा।
Excellent
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