शान्ति प्रार्थना
ॐभद्रं कर्णेभिःश्रृणुयाम देवाःभद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।
स्वस्ति न इन्द्र वृद्धश्रवाःस्वस्ति न पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
ॐ शान्ति शान्तिः शान्तिः।।
कर्ण से हम शुभ सुनें शुभ देख पाएँ नैन से
स्वस्थ हम जीवन बिताएँ करें पूजन चैन से
इन्द्र सूर्य व वायु रक्षा करें सारे दोष से।
औ' बृहस्पति आत्मधन पूरण करें निज कोष से।
बुद्धि शक्ति प्रदान कीजे पढ़ समझ लें वेद सब।
और जीवन में सँजोएँ ज्ञान के ये भेद सब। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।
ॐ प्रथम प्रश्न कबन्घि एवं पिप्पलाद
ॐ सुकेशा च भारद्वाजः शैब्यश्च सत्यकामः
सौर्यायणी च गार्ग्यःकौसल्यश्चाश्वलायनो
भार्गवो वैदर्भिः कबन्धी कात्यायनस्ते हैते
ब्रह्मपरा ब्रह्मनिष्ठाः परं ब्रह्मान्वेषमाणाः
एष ह वै तत्सर्वंवक्ष्यतीति
ते ह समित्पाणयो भगवन्तं पिप्पलादमुपसन्नाः।। 1।।
भारद्वाज सुत सुकेश शिबि के सुत सत्यकाम।
गर्ग गोत्र में जन्मे सूर्यपौत्र गार्ग्य करें प्रणाम।
अश्वल सुत कौसल्य भृगु कुल के भार्गव।
कत्य पुत्र कबन्धि ले गुरु पद सब गौरव।
पिप्पलाद की शरण में आए ये सब छात्र। सगुण ब्रह्म तज आत्म ज्ञान से भर देंगे ऋषि पात्र।
तान्ह स ऋषिरुवाच_
भूय एव तपसा ब्रह्मचर्येण
श्रद्धा संवत्सरंसंवत्स्यथ
यथाकामं प्रश्नान्पृच्छत
यदि विज्ञास्यामःसर्वं ह वो वक्ष्याम इति।। 2।।
पिप्पलाद बोले छात्रों से एक वर्ष तक करो निवास।
ब्रह्मचर्य कार्पण्य औ'श्रद्धा नियमों में विश्वास।
एक वर्ष पश्चात तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दूँगा।
जो भी शंकाएँ हैं मन में मैं उन सब को हर लूँगा।
अथ कबन्धी कात्यायन उपेत्य पप्रच्छ।
भगवन् कुतो ह वा इमाः प्रजा प्रजायन्त इति।। 3।।
एक वर्ष पश्चात कबन्धि पहुँचे ऋषि के पास।
गुरुवर जीवोत्पत्ति का समझाएँ इतिहास।
तस्मै स होवाच_
प्रजाकामो वै प्रजापति स तपोऽतप्यत
स तपस्तप्त्वा स मिथुनमुत्पादयते।
रयिं च प्राणं चेत्येतौ
मे बहुधा प्रजा करिष्यत इति।। 4।।
प्रजापति ने गहन तप कर शक्ति और पदार्थ से।
मिथुन कर सम्भव करेंगे सृष्टि को हर अर्थ से।
आदित्य ह वै प्राणों रयिरेव चन्द्रमा
रयिर्वा एतत सर्वं यन्मूर्तं चामूर्तं च
तस्मान्मूर्तिरेव रयिः।। 5।।
आदित्य ही है शक्ति एवं चंद्र स्वयं पदार्थ है।
आकार हों या निराकार विचार स्वयं पदार्थ है।
अथादित्य उदयन्यत्प्राचीं दिशं प्रविशति
तेन प्राच्यान् प्राणान्त रश्मिषु सन्निधते।
यद्दक्षिणां यत्प्रतीचीं यदुदीचीं
यदधो यदूर्ध्वं यदन्तरा दिशो
यत्सर्वं प्रकाशयति तेन सर्वान्
प्राणान्त रश्मिषु सन्निधत्ते।। 6।।
आदित्य जब होते उदय, प्राची दिशा हो प्रकाशमय।
ज्यों प्राण उद्घोषित करे, सारी दिशाओं में फिरे।
ऊपर व नीचे रोशनी, यूँ नाचती है ज़िन्दगी।
जो नींद में इक वस्तु था, सोया हुआ निष्प्राण सा।
वह शक्ति से कंपित हुआ, वह स्वयं भी यों उदित हुआ।
स एष वैश्वानर विश्वरूप प्राणोऽग्निरुदयते।
तदेतदृचाभ्युक्तम्।। 7।।
सूर्य ही हर रूप में है।
प्राण अग्नि व धूप में है।
इक ऋचा ऋग्वेद की भी।
कह रही है बात ऐसी।
विश्वरूप हरिणं जातवेदसं परायणं ज्योतिरेकं तपन्तम्।
सहस्ररश्मिःशतधा वर्तमान प्राण प्रजानामुदयत्येष सूर्यः ।। 8।।
सर्वरूपी सर्वज्ञानी।
ज्योति ऊर्जा की है दानी।
प्राण सारे जीव जग का।
जो अँधेरा हरे मग का।
संवत्सरो वै प्रजापतिस्तस्यायने दक्षिणं चोत्तरं च।
तद्ये ह वै तदिषटापूर्ते कृतमित्युपासते ते चान्द्रमसमेव ललोकमभिजयन्ते।
त एव पुनरावर्तन्ते तस्मादेत ऋषयः प्रजाकामा दक्षिणं प्रतिपद्यन्ते।
एष ह वै रयिर्यःपितृयाणः।। 9।।
वर्ष भी है प्रजापति ही।
उत्तर दक्षिण की है गति ही।
जो सब नाते तोड़ चुका है।
आत्म ब्रह्म से जोड़ चुका है।
उत्तर पथ की ओर अग्रसर।
होता मृत्यु प्रान्त वही नर।
जिसमें इच्छा अभी शेष है।
दान पुण्य है शुभ विशेष है।
चन्द्र दिशा दक्षिण को जाता।
पितृलोक में निज को पाता।
संचित पुण्य समाप्त होंय जब।
पुनः धरा पर आ जाता तब।
अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्य श्रद्धया
विद्ययात्मानमन्विष्यादित्यमभिजयन्ते।
एतद्वैप्राणानामायतनमेतदमृतम्
अभेयमेतत्परायणमेतस्मान्न
पुनरावर्तन्त इत्येष निरोधः
तदेष श्लोकः।। 10।।
तप से विद्या ब्रह्मचर्य से।
आत्मा पथ ले चले सूर्य से।
उत्तर दिशि में जाता वह नर।
ब्रह्म लोक को पाता वह नर।
आत्म ब्रह्म में होता लीन।
पुनरावृत्ति कभी होती न।
पंचपादंपितरं द्वादशाकृतिं दिव आहुःपरे अर्धे पुरीषिणम्।
अथेमे अन्य उ परे विचक्षणं सप्तचक्रे षडर आहुरर्पितमिति।। 11।।
पंचपाद ऋतुएँ हों जैसे।
बारह आकृति माह हैं ऐसे।
सात रंग के घोड़े ऎसे।
किरणों का विघटन हो जैसे।
वही शक्ति के पुंज कहाएँ।
धरा वृष्टि से वे नहलाएँ।
रहते अन्तरिक्ष के ऊपर।
हैं आदित्य शक्ति है भीतर।
मासो वै प्रजापतिस्तस्यायने कृष्णपक्ष एव रयिः शुक्लः प्राणः
तस्मादेत ऋषयः शुक्ल इष्टं कुर्वन्तीतर इतरस्मिन्।। 12।।
प्रजापति है मास इस में शुक्लपक्ष है शक्ति का।
ऋषिगण यज्ञ कर्म करते हैं मन से अपनी भक्ति का।
कृष्ण पक्ष पदार्थ है जब अन्य जन सब भेंट दें।
निष्काम है यदि कर्म तो ना कर्मबंधन में पड़ें।
अवयव सभी ये प्रजापति के प्राण और पदार्थ हैं।
जब ये समझ लें गुत्थियों के तभी खुलते अर्थ हैं।
अहोरात्र वै प्रजापतिस्तस्याहरेव प्राणों रात्रिरेव रविः
प्राणों वा एतेप्रस्कन्दन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते
ब्ह्मचर्मेव तद्यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते।। 13।।
प्रजापति ने दिन बनाया प्राण जहाँ प्रधान है।
रात्रि में तो चंद्रमा का असर ही गतिमान है।
प्रेम हेतु दिवस मिलन से रात्रि मिलन यथार्थ है।
व्यर्थ ही है दिवस मिलन न कोई इस का अर्थ है।
अन्नंवै प्रजापतिस्ततो ह वै तद्रेतः
तस्मादिमाः प्रजाः प्रजायन्त इति।। 14।।
शक्ति से ही बना भोजन वीर्य भोजन से बना।
संतति उत्पन्न हो तब चक्र जीवन का चला।
प्रजापति ही शक्ति एवं वस्तु हैं दिन रात भी।
समय भी हैं नर व नारी रात्रि और प्रभात भी।
तदये ह वै तत्प्रजापतिव्रतं चरन्ति ते मिथुनमुत्पादयन्ते।
तेषामेवैष ब्ह्मलोको येषां तपो ब्रह्मचर्यं येषु सत्यंप्रतिष्ठितम्।। 15।।
तप ब्रह्मचर्य व सत्य का पालन करेंजब जीव सब।
तो हो अकारण वृद्धि पर हों नियंत्रण में जीव तब।
तेषामसौ विरजो ब्ह्मलोको
न येषु जिह्ममनृतं न माया चेति।। 16।।
ब्रह्मलोक है जिस में धोखा झूठ औ' न दुराव है।
आत्मा का ह्रास हो जब इनका प्रबल प्रभाव है।
हम जो विचारें सो कहें लाएँ वही व्यवहार में।
तो चिर सनातन सत्य आलोकित रहे संसार में।
द्वितीय प्रश्न भार्गव एवं पिप्पलाद
अथ हैनं भार्गवो वैदर्भिः पप्रच्छ।भगवन्कत्येव देवाःप्रजा विधारयन्ते
कतर एतत्प्रकाशयन्ते
कः पुनरेषां वरिष्ठ इति।। 1।।
भार्गव जो विदर्भ से थे पूछते गुरुदेव से।
इस जीव के होते सहायक कौन कितने देव थे।
उन में है जो कि वरिष्ठ फिर नाम उन का लीजिए।
गुरुदेव मेरा प्रश्न विद्या से प्रकाशित कीजिए।
तस्मै स होवाच_
आकाशो ह वा एष देवो
वायुरग्निरापः पृथिवी वाङ्मनश्चक्षुः श्रोत्रं च। ते प्रकाश्याभिवदन्ति
वयमेतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामः।। 2।।
जो करें सब कार्य वे हैं पाँच ही कर्मेंद्रियाँ।
देव इनके जो प्रतिष्ठित हैं वही ज्ञानेंद्रियाँ।
अग्नि वायु गगन धरा जल पाँच इनके देव हैं।
कर्मेन्द्रियों से कार्य सारे देव अपने लेव हैं।
है कोन सबसे बड़ा इनमें वाद जब ऐसा हुआ।
देह मुझ से ही स्थापित वहम ये सब को हुआ।
तान्वरिष्ठः प्राण उवाच।
मा मोहमापद्यधाहमेवैतत्पञ्चाधात्मानं
प्रविभज्यैतद्बाणमवष्टभ्य विधादयामीति
तेऽश्रद्दधाना बभूवुः।। 3।।
प्राण ने तब ये कहा कि अपना पंचरूप विभक्त कर।
तुम में किया संचार इसका सब प्रकार सशक्त कर।
सोऽभिमानादुर्ध्वमुत्क्रमत इव
तस्मिन्नुतक्रामत्यथेतरे सर्व एवोत्क्रामन्ते
तस्मिंश्च प्रतिष्ठान सर्व एव प्रातिष्ठन्ते।
तद्यथा मक्षिका मधुकरराजानमुत्क्रामन्तं
सर्वा एवोत्क्रामन्ते तस्मिंश प्रतिष्ठमाने
सर्वा एव प्रातिष्ठन्ते एवं वाङ्मनश्चक्षुः
श्रोत्रं च ते प्रीताः प्राणों स्तुन्वंति।। 4।।
पर देव अपने गर्व में थे न किया स्वीकार यह।
तब प्राण उठ चलने लगे कर देह अस्वीकार यह।
ज्ञानेन्द्रियाँ उठने लगीं जब प्राण बैठे तो रही।
प्राण ही हैं श्रेष्ठ सब ने मान ली उन से कही।
सभी मधुमक्खी भगें जब मात छाता छोड़ती।
पुनः आएँ मात जब उस ओर फिर से दौड़ती
एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एष पर्जन्यो मघवानेष वायुः।
एष पृथिवी रयिर्देवः सद्सच्चामृतं च यत्।। 5।।
प्राण ही से अग्नि जलती सूर्य देता ताप है। वायु चलती जल बरसता यूँ धरा पर आप है।
अग्नि जल औ'धरा तीनों मूर्त देव हैं मानिए।
आकाश एवं वायु दोनों को अमूर्त ही जानिए।
अरा इव रथनाभौ प्राण सर्वं प्रतिष्ठिद्तम्।
ऋचो यजूंषि सामान यज्ञः क्षत्र ब्रह्म च।। 6।।
ज्यों अरा रथ के प्राण ही सब में प्रतिष्ठित है यहाँ।
ऋग यजुर साम के मंत्र भी है प्राण से निष्ठित यहाँ।
ब्राह्मणों की ध्यानशक्ति व क्षत्रियों की कर्म से।
गुरु भी सिखाते प्राण से ही शिष्य इसके धर्म से।
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे।
तुभ्यं प्राण प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति
यः प्राणैः प्रतितिष्ठसि।। 7।।
गर्भ में उसको हिलातेप्राण ही फिर जन्म ले।
पंचभागों में तुम्हीं हो यज्ञ करने को कहे।
सारी कृयाएँ जो कि नर करता रहे संसार में।
ये पुष्प कुछ डाले गए हैं प्राण के दरबार में।
देवानामसिवह्मितमःपितृणां प्रथम स्वधा। ऋषीणां चरितं सत्यमथर्वाङ्गिरसामसि।। 8।।
अग्नि रूपीप्राण करते देव पितृ वन्दना।
इंद्रियों से प्राण करवाते नियंत्रण यह सदा।
इन्द्रस्त्वं प्राण तेजसा रुद्रोऽसि परिरक्षिता।
त्वमन्तरिक्षे चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः।। 9।।
इन्द्र रूप में प्राण ही देते उसको जन्म।
सूर्य रूप में पालते रुद्र रूप में भस्म।
यदा त्वमभिवर्षस्यथेमाः प्राण ते प्रजाः।
आनन्दरूपास्तिष्ठन्ति कामायान्नं भविष्यतीति।। 10।।
हे प्राण जब बरसात करते हर्ष होता सभी को।
सम्भावना होती कि अब भोजन मिलेगा सभी को।
व्यात्यस्त्वंप्राणैकर्षिरत्ता विश्वस्त सत्यतिः।
वयमाद्यस्य दातारःपिता त्वं मातरिश्व नः।। 11।।
प्राण ही हैं पवित्र नर तो अपवित्र ही जन्मते।
शिक्षा मिले गुरुचरण में, ब्राह्मण उसे दीक्षित करे।
या हो पवित्र वो योगि द्वारा सीख आत्मिक ज्ञान ले।
प्राण ही है प्रथम जन्मा है पवित्र ये जान ले।
प्राण ही है अग्नि वायु वृष्टि भोजन सब बने।
जिसे खाकर जीव बढ़ते प्राण यूँ उन में बसे।
मासो वै प्रजापतिस्तस्य कृष्णपक्ष एव रयिः शुक्ल प्राणः
तस्मादेत ऋषयः शुक्ल इष्टं कुर्वन्तीतर इतरस्मिन्।। 12।।
इन्द्रिय सभी हैं कार्यरत जब प्राण रहते देह में।
आँख देखेंजो पवित्र हो कान वैसा ही सुनें।
मन वही सोचे तथा यह जीभ वैसा ही कहे।
हों विचार पवित्र तो सब कुछ उसी रह ही चले।
अपान वाणी व्यान कान औ'आँख तो है प्राण ही।
मन नियंत्रित हो बसे उसमें आन समान ही।
जब सभी इंद्रिय नियंत्रित प्राण के सब भाग से।
जीवन बने इक प्रार्थना तब ईश के अनुराग से।
अहोरात्र वै प्रजापतिस्तस्याहरेव प्राणों रात्रिरेव रयिः
प्राणों वा एते प्रस्कन्दन्ति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते।
ब्रह्मचर्यमेव तद्यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते।। 13।।
प्राण ही सब लोक में शासन करें औ' दान दें।
ज्यों मात रखती पुत्र को यों प्राण ज्ञान व मान दें।
शक्ति संघालित करे जड़ वस्तु को हर छोर से।
हो जीव का उत्थान बाहर भीतरी हर ओर से।
यह शक्ति संचालन करे हम सब का मातृस्नेह से।
ज्ञान और समृद्धि पाए विश्व ये आगे बढ़े।
1३... तृतीय प्रश्न कौसल्य-पिप्पलाद...
अथ हैनं कौसल्यश्चाश्वलायनः पप्रच्छ।
भगवन्कुत एष प्राणो जायते
कथमायात्यस्मिञ्शरीर आत्मानं
वाप्रविभज्य कथंप्रतिष्ठते
केनोत्क्रमतेकथं बाह्यमभिधत्ते
कथमध्यात्ममिति।। 1।।
कौसल्य ने पूछा कि भगवन प्राण आते कहाँ से।
आते कैसे तन में बँटें रहते और संचालन करें।
क्यों प्राण छोड़ें देह को ये भी मुझे भगवन कहें।
किस भाँति भीतर बाहरी भागों का संचालन करें।
तस्मै स होवाचातिप्रश्नान्पृच्छसि
ब्रह्मिष्ठोऽसीति तस्मात्तेऽहं ब्रवीमि।। 2।।
तन मन व बुद्धि के स्तर के पार है जो चेतना।
इस प्रश्न का उत्तर वहीं पर पुत्र होगा ढूंढना।
तुमने स्वयं को शुद्ध और पवित्र है ऐसा किया।
मैं कह रहा हूँ क्योंकि तुम यह समझ लोगे प्रक्रिया।
आत्मन एष प्राणो जायते
यथैषा पुरुष छायैतस्मिन्नेतदाततं
मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे।। 3।।
छाया की उत्पत्ति हो ज्यों देह प्रतिबिंबित करे।
प्राण जन्में आत्मा से देह आच्छादित करे। फिर चेतना में हर घड़ी चलते रहें विचार।
जैसा सोचे उस तरह करता नर व्यवहार।
यथा सम्राडेवाधिकृतान्विनियुङ्क्ते।
एतान्ग्रामानेतान्ग्रामानधितिष्ठस्व
इत्येवमेवैष प्राण इतरान् प्राणान्
पृथक्पृथगेव संनिधत्ते।। 4।।
प्राण हुए प्रविष्ट चेतन मन बना जब आईना।
राजा करे विभक्त किसको काम कौन निबाहना।
उसी भाँति उपप्राण भी करते अपने कर्म।
पृथक पृथक वे कर्म हैं सब अंगों के धर्म।
पायूपस्थेऽपानं चक्षुःश्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां
प्राण स्वयं प्रातिष्ठते मध्ये तु समानः।
एष ह्येतद्भुतमन्नं समं नयति
तस्मादेताः सप्तार्चिषो भवन्ति।। 5।।
अपान करता त्याग मल औ'मूत्र का प्रजनन करे।
प्राण सिर के सात छिद्रों का ही संचालन करे।
समान भोजन को पचा कर भेजता हर अंग में ।
सप्त अग्नि प्रदीप्त होतीं देह की इस रंग में।
दो आँखें दो छिद्र नाक के एक मुँह दो कान
अपना अपना कार्य कर रही सातों ज्वाल समान।
हृदि ह्येष आत्मा। अत्रैतदेकशतं नाडीनांं
तासां शतं शतमेकैकस्यां
द्वासप्ततिर्द्वासप्ततिः प्रतिशाखानाडीसहस्राणि
भवन्त्यासु व्यानश्चरति।। 6।।
मन विचार का केन्द्र है करे हृदय में वास।
नाड़ी इससे सैकड़ों करती मुख्य निकास।
फिर हर नाड़ी बँट रही वर्गित कई हज़ार।
इस प्रकार हो करोड़ों नाड़ी का विस्तार।
होता रक्त प्रवाह यों तन में चारों ओर।
व्यान शक्ति का एक यह कार्य देह की ओर।
अथैकयोर्ध्व उदानः पुण्येन पुण्यं लोकं नयति
पापेन पापमुभाभ्यामेव मनुष्यलोकम्।। 7।।
जैसी होती भावना कर्म करे सो आन।
ऊर्ध्वलोक या निम्नलोक में लेकर जाय उदान।
ऊँच नीच के मिश्रित भावों का करता व्यवहार।
मिलता पृथ्वीलोक फिर मानव को इक बार।
आदित्य ह वै बाह्य प्राण उदयति
एष ह्येनंचाक्षुषंप प्राणमनुगृह्णानः।
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्य
अपानमवष्टभ्यांतरा यदाकाशः
स समानो वायुर्व्यानः।। 8।।
बाहर जगत में सूर्य भी तो प्राण का ही रूप है।
चक्षुओं से सृष्टि को देखे जो शक्ति स्वरूप है।
पृथ्वी देवी खींचती निज ओर स्वयं अपान से।
मध्य में है अंतरिक्ष जो नियंत्रित है समान से।
श्वास जिससे जीव लें सब नियंता भी समान है।
वायु बहती है वहाँ जिसका नियंता व्यान है।
यों बाह्य जगत में प्राण का विस्तार है ऋषि ने किया।
व उपासना का मार्ग भी छात्रों को यह दिखला दिया।
तेजो ह वा उदानस्तस्मादुपशासन्ततेजाः
पुनर्भवमिन्द्रियैर्मनसि संपद्यमानैः।। 9।।
बाह्य तेज उदान रूप में सदा रहता देह में। मृत्यु समय ही अग्नि उपप्राणों समेत तजे इसे।
सूक्ष्म तन ने मन में सारे ज्ञान संचित कर लिए।
फिर अन्य देह प्रवेश करता साथ इन सबको लिए।
यच्चित्तस्तेनैष प्राणमायाति प्राणस्तेजसा युक्तः
सहात्मना यथासंकल्पितं लोकं नयति।। 10।।
जीवन भर जिस तरह के मन में उठे विचार।
अंत समय में कर से उसका ही व्यवहार।
उसी रूप में कर सके आत्मा के संग प्राण।
पुनर्जन्म का लोक भी निर्भर इस पर जान।
य एवं विद्वान्प्राणं वेद
न हास्य प्रजा हीयतेऽमृतो भवति
तदेष श्लोक।। 11।।
इच्छाएँ हैं तीन ही यश धन औ संतान
बाह्य और अंतर्जगत जब रख सब का ध्यान।
उन्नति होती जीव की मिलति है सम्मान। आगामी ऋग्वेद के श्लोक का यही बखान।
उत्पत्तिमायतिं स्थानों विभुत्वं चैव पञ्चधा।
अध्यात्मं चैव प्राणस्य विज्ञायामृतमश्नुते।
विज्ञायामृतमश्नुत इति।। 12।।
प्रतिदिन के अभ्यास से हो नर को अहसास।
जन्म प्रवेश स्थान व विघटन पंचरूप में वास।
अंतर्मन औ बाह्य जगत में रहें प्राण जिस भाँति।
अमर वही नर जान सकें जो अन्य सभी है भ्रान्ति।
......... इति तृतीय प्रश्न.......
.... चतुर्थ प्रश्न गार्ग्य _पिप्पलाद....
अथ हैनं सौर्यायणी गार्ग्यः पप्रच्छ।
भगवन्नेतस्मिन्पुरुषे कानि स्वपन्ति
कान्यस्मिञ्जाग्रति
कतर एष देवः स्वप्नान्पश्यति
कस्यैतत्सुखं भवति
कस्मिन्नुसर्वे संप्रतिष्ठिता भवन्तीति।। 1।।
सूर्य पौत्र यों पिप्पलाद से प्रश्न पूछते करें नमन।
जाग्रत स्वप्न व गहरी निद्रा कौन चलाता है भगवन।
कौन जागता है सुषुप्ति में औ 'सोता है कौन ?
जाग्रत रहने वाली इन्द्रिय हो जातीं जब मौन।
जाग्रत देह सो रही है जब स्वप्न शरीर करे अनुभव।
जाग्रत और स्वप्न के बाद तो गहन नींद ही है संभव।
अलग अलग हैं ये तीनों तल फिर भी हम को रहता याद।
क्या देखा जब स्वप्न लिया था उसके सभी दुःख आल्हाद।
तस्मै स होवाच_
यथा गार्ग्य मरीचयोऽर्कस्यास्तं गच्छतः
सर्वा एतस्मिंस्तेजोमण्डल एकीभवन्ति।
ताः पुनः पुनरुदयतः प्रचरन्त्येवं ह वै
तत्सर्वं परे देवे मनस्येकीभवति।
तेन तर्ह्येष पुरुषो न शृणोति न पश्यति
न जिघ्रति न रसयते न स्पृषते नाभिवदते
नादत्तेनानन्दयते न विसृजते नेयायते स्वपितीत्याचक्षते।। 2।।
ज्यों छिपते सूरज में छिप जातीं हैं सूरज की किरन।
सारी इन्द्रिय उसी तरह छिपतीं जिसमें वह ही है मन।
ना सुने देखे चख सके ना सूँघ सके छुए न तन।
ना बोलता हिलता न लेता त्यागता मल मूत्र तन।
मन ही है वह देव कि जिसमें सुप्त इन्द्रियाँ करें निवास।
जब जागें तो वही इन्द्रियाँ दें हमको इसका अहसास।
प्राणाग्नय एवैतस्मिन्पुरे जाग्रति।
गार्हपत्यो ह वा एषोऽपानो व्यानो
अन्वाहार्यपचनो यदगार्हपत्यात्प्रणीयते
प्रणयनादाहवनीयः प्राणः।। 3।।
तन होता जब नींद में तो अग्नि जो पुर में जलें।
वैदिक समय के प्राण से यदि हवन की तुलना करें।
गार्ह्यपत्य की अग्नि तो जल रही हर घर में वहाँ।
लेकर इसी से अग्नि करते हवनसारे नर वहाँ।
गार्ह्यपताग्नि जो बाहर जाती इससे कहते इसे अपान।
आहुति पाकर यज्ञ की सभी आहवनीय बने यह प्राण।
व्यान है वह दक्षिणाग्नि जो पास ही इसके जले।
इस पुर में करे प्रवाह जीवन भर व फिर इसको तजे।
यदुच्छ् वासनिःश्वासावेतावाहुती समं नयतीति स समानः।
मनो ह वाच यजमानः। इष्टफलमेवोदानः।
स एनंयजमानमहरहर्ब्रह्म गमयति।। 4।।
आती जाती श्वास से आहुति देत समान।
होत्र वही इस यज्ञ का मन इसका यजमान।
इष्टफल जो भी मिले समझें उसे उदान।
बढ़े ब्रह्म या शान्तिपथ गहन नींद यजमान।
दिन में विचलित हो उदान का संस्कृत मन अवरोध।
निद्रा गहन न आ सके सबको है इसका बोध।
अत्रैष देवः स्वप्न महिमानमनुभवति।
यद् दृष्टं दृष्टमनुपश्यति
श्रुतंश्रुतमेवारथमनुशृणोति।
देशदिगन्तरैश्च प्रत्यनुभूतं
पुनः पुनः प्रत्यनुभवति
दृष्टं चादृष्टं च श्रुतं चाश्रुतं च
अनुभूत चाननुभूतं च सच्चासच्च
सर्वं पश्यति सर्वः पश्यति।। 5।।
मन स्वप्न में देखे जोदेखा और अनदेखा सभी।
अनसुना सुना हर जगह का जाना अनजाना सभी।
आया कभी विचार मन में पर न विकसित हो सका।
मन दृश्य द्रष्टा शब्द घटना स्वप्न में सब में बँटा।
स यदा तेजसाभिभूतो भवति
अत्रैष देवःस्वप्नान्न पश्यति
अथ तदैतस्मिञ्शरीर एतत्सुखं भवति।। 6।।
तेज आत्मा का ढके जब मन न देखे स्वप्न तब।
यहाँ है आनन्द गहरी नींद में सोता है तब। इन्द्रिय मन व विचार का रहे न कोई भार।
स्वप्न व जाग्रत जगत का कोई नहीं विकार।
ऋणात्मक आनन्द की स्थिति आत्मा के पास।
गहन निद्रा की स्थिति देती सुख अहसास
इन्द्रियाँ मन में करें विश्राम होता स्वप्न तब
मन सिमटता जब स्वयं में गहन निद्रा होय तब।
स यथा सोम्य वयांसि वासोवृक्षं संप्रतिष्ठन्ते
एवं ह वै तत्सर्वं पर आत्मनि संप्रतिष्ठते।। 7।।
थके हुए थे दिन भर के जब हो जाती शाम।
आकर करें वृक्ष पर पक्षी जिस प्रकार विश्राम।
थका हुआ मन कर सके थोड़ा सा विश्राम
उठ कर फिर से कर सकें सभी इन्द्रियाँ काम।
पृथ्वी च पृथिवीमात्रा चापश्चापोमात्रा च
तेजश्च तेजोमात्रा च वायुश्च वायुमात्रा
चाकाशश्चाकाशमात्रा च चक्षुश्च
द्रष्टव्य च श्रोत्रं च श्रोतव्यं च घ्राणं च
घ्रातव्यं च रसश्च रसयितव्यं च
त्वक्च स्पर्शयितव्यं च वाक्च वक्तव्यं च
हस्तौ चादातव्यं चोपस्थश्चानन्दयितव्यं च
पायुश्च विसर्जयितव्यं च पादौ च
गन्तव्य चमनश्च मन्तव्य च बुद्धिश्च
बोद्धव्यं चाहङ्कारशचाहङ्कर्तव्यं च चित्तं च
चेतयितव्यं च तेजश्चविद्योतयितव्यं च
प्राणश्च विधारयितव्यं च।। 8।।
नाक - गंध - धरा, स्पर्श - वायु - त्वचा, कान - ध्वनि - नभ ।
रूप - नेत्र - अनल, रस - जीभ - सलिल, ये सबके सब।
चलना, पकड़ना, सृजन - विसर्जन और बोलना।
जो इन्हें तन में करें पाँचों वही कर्मेन्द्रियाँ।
मन, बुद्धि, तेज व चित्त प्राण, औ अहंकार।
विज्ञानात्मा को इन सबसे ही मिलता आकार।
सभी गहन निद्रा में रहते जीवात्मा के पास।
जिससे होता है हमें आनन्द का अहसास।
एष हि द्रष्टा स्प्रष्टा श्रोता घ्राता रसयिता
मन्ता बोद्धा कर्ता विज्ञानात्मा पुरुषः
स परेऽक्षर आत्मनि संप्रतिष्ठते।। 9।।
जीवात्मा जो है अमर परम सत्य यह जान।
भिन्न विज्ञानात्मा से करता करता शक्ति प्रदान।
परमेवाक्षरं प्रतिपद्यते
स यो ह वै तदच्छायमशरीरमलोहितं
शुभ्रमक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य।
स सर्वज्ञ सर्वो भवति।
तदेष श्लोकः।। 10।।
अक्षर शुभ्र शरीर बिन छायारहित भी जान।
है सर्वज्ञ है सर्वत्र है रंगहीन परम मान।
विज्ञानात्मा सह देवैश्च सर्वैः
प्राण भूतानि सम्प्रतिष्ठन्ति यत्र।
तदक्षरं वेदयते यस्तु सोम्य
स सर्वज्ञःसर्वमेवाविवेशेति।। 11।।
विज्ञानात्मा यह सभी देव भूत प्राण सह।
अविनाशी, सर्वज्ञ, आत्मा में ही जाय रह।
......... इति चतुर्थः प्रश्नः.......
पञ्चमः प्रश्नः सत्यकाम--पिप्पलाद
अथ हैनंशैब्यःसत्यकामः पप्रच्छ।
स यो ह वैतद्भगवन्मनुष्येषु
प्रायणान्तमोङ्कारमभिध्यायीत।
कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति।। 1।।
सत्यकाम शिबिपुत्र ने पूछा गुरु से आन।
भगवन मेरे प्रश्न का उत्तर करें प्रदान।
जीवन भर जो नर करे ओम नाम का जाप
अंत समय में निकलता ओम नाम ही आप
जाता वह किस लोक में जब तजता निज देह।
भगवन मेरे कीजिए दूर सभी संदेह।
तस्मै स होवाच - -
एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः। तस्मादविद्वानेतेनैवायतनेनैकतरमन्वेति।। 2।।
सत्यकाम ओंकार से मिल सकते दो लोक
जाकी जैसी भावना पाए वैसा लोक।
अ उ म के ध्यान से मिलता नश्वर स्थान।
दो ओमों के बीच में शान्त तुरीय प्रमाण।
इस तल पर यदि साधक रखे हरदम अपना ध्यान।
तब अनन्त को प्राप्त हो साधक ससम्मान।
स यद्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव
संवेदितस्तूर्णमेव जगत्यामभिसम्पद्यते।
तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते
स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया
सम्पन्नो महिमानमनुभवति।। 3।।
अ पर जो साधक करे केंद्रित अपना ध्यान।
जाग्रत तन की अवस्था के ऋकदेव महान।
आता मानवलोक में हो अध्यात्म में लीन।
तप श्रद्धा औ ब्रह्मचर्य के होता मन आधीन।
आत्मसंयम और तप दोनों एक समान।
तन से मन से तज सके वह मैथुन का ध्यान।
समझ बूझ कर धर्म पर जो रखता है आस।
सम्भव है यह जब उसे हो निज पर विश्वास।
अथ यदि द्विमात्रेण मनसि सम्पद्यते
सोऽन्तरिक्षं यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकम्।
स सोमलोके विभूतिमनुभूय पुनरावर्तते।। 4।।
दूजी मात्रा उ पर हो जिस साधक का ध्यान।
मरने पर वह पाय नर सोमलोक में स्थान।
मंत्रदेवता यजुर्वेद के मन के स्वामी चंद।
पितृजनों का साथ पा लेता हैआनन्द
वापस आता धरा पर पुण्यों का जब ह्रास।
उ मात्रा के जाप का समय बद्ध उल्लास।
यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं
पुरुषमभिध्यायीत स तेजसि सूर्य संपन्नः।
यथा पादोदरस्त्वचा।
विनिर्मुच्यत एवं ह वै स पाप्मना
विनिर्मुक्तःस सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं स
एतस्माजीवघनात्परात्परं पुरिशयं पुरुषमीक्षते
तदेतौ श्लोकौ भवतः।। 5।।
तीनों मात्रा का करे जो भी नर व्यवहार।ः
साधक करे उपासना उस की बारंबार।
सर्प तजे ज्यों कंचुली तन से देत उतार।
तेज सूर्य सा पा मिले पापों से उद्धार।
साम मंत्र के जाप से ब्रह्म लोक आसीन। देखे बैठे ह्रदय में परम पुरुष हो लीन।
यह है ब्राह्मण उपनिषद वेद मंत्र उच्चार ।
करते ऋषिवर तथ्य का जब भी उपसंहार
तिस्त्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रत्युक्ता अन्योन्यसक्ता अनविप्रयुक्ताः।
क्रियासु बाह्याभ्मन्तरमध्यमासु सम्यक्प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः।। 6।।
पृथक पृथक मात्रा का जब तक साधक करता ध्यान।
नश्वर लोक मिलें उसे सत्य इसे ही जान।
तीनों मात्रा जब मिलें हो समुचित व्यवहार।
जाग्रत स्वप्न घोर निद्रा में इनका बारंबार। ॐ नाम का जब करे साधक हरदम ध्यान दो ॐ नाम के बीच में अमात्रा का स्थान।
यहाँ नर करे जीवात्मा का निज में साक्षात्कार।
कम्पित नहीं शांत अंतर्मन सदा शांत आचार।
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं
सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते।
तमोङ्कारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्
यत्तच्छान्तमजरममृतमभयं परं चेति।। 7।।
अ मात्रा के ऋगमंत्र देवता शीघ्र जगत में लाएँ।
उ मात्रा के यजुर्देव बस पितृलोक ले जाएँ।
म मात्रा के सामदेवता मन का ही अधिकार।
क्रम मुक्ति नर पा सकें इससे आख़िरकार।
अलग अलग मात्रा करें नश्वर जगत प्रदान।
ओम शब्द से पा सके इन सब को विद्वान। अजर अमर औरअभय परा स्थिति में ही पाय।
इन को पाकर मर्त्यलोक में कभी न वो नर आय।
...... इति पञ्चमः प्रश्नः.....
... अथ षष्ठः प्रश्नः सुकेश पिप्पलाद...
अथ हैनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ।
भगवन् हिरण्यनाभः कौसल्यो राजपुत्रो
मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत।
षोडशकलं भारद्वाज पुरुषं वेत्थ
तमहं कुमारमब्रुवंनाहमिमं वेद
यद्यहमिममवेदिषं कथं ते नावक्ष्यमिति
समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति
तस्मान्नार्हाम्यनृतं वक्तुम्
स तूष्णीं रथमारुह्य प्रवव्राज।
तं त्वा पृच्छामि क्वासौ पुरुष इति।। 1।।
भरद्वाज के पुत्र सुकेश ने पूछा हे भगवन। कोसल राजपुत्र ने मुझसे पूछा था ये प्रश्न। षोडश कला वाले पुरुष का कीजे आप बखान।
मैंने उससे यह कहा मैं उससे अनजान।
सुनकर राजकुमार को हुआ नहीं विश्वास। ऋषिवर मुझे बताएँगे थी मेरी यह आस।
अगर जानता तो न क्यों करता उसे बखान।
मिथ्या भाषण से मेरा नाश हुआ ही जान।
अपने रथ पर बैठ कर चला गया निज राज।
रहता है वह किस जगह कहें मुझे मुनि आज।
तस्मै स उवाच - -
इहैवान्तः शरीरे सोम्य स पुरुषो
यस्मिन्नेताः षोडश कलाः प्रभवन्तीति।। 2।।
पिप्पलाद ऋषि ने कहा समझो इसे सुकेश।
इसी देह में बस रहा ऐसा पुरुष विशेष।
समझाने को शिष्य को ऋषि देते यों ज्ञान। पूर्णपुरुष का कर सकें कैसे शब्द बखान।
जो हैं सोलह कलाएँ पूर्ण पुरुष के भाग।
मिटें कलाएँ पूर्ण जब हो उस से अनुराग।
स ईक्षांचक्रे।
कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्ययमि
कस्मिन्वा प्रतिष्ठितेप्रताष्ठास्यामीति।। 3।।
ऋषिवर कहें सुकेश से मानव का उद्गार।
पूर्ण पुरुष ने तब किया ऐसा एक विचार। किस के जाने पर गमन मैं भी करूँ।
किस के रहने से यहाँ मैं भी रहूँ।
बाह्यजगत अन्तर्जगत मन जैसा ही नर।
देहावरण लिए हुए आत्मा जो अक्षर।
पूर्णपुरुष का आत्मा जग में है परछाई।
अहम से भरी देह को जगत पड़े दिखलाई
स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्राद्धां खं
वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनः
अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः
कर्म लोका लोकेषु च नाम च।। 4।।
प्राण बना उस से किया विश्वास वायु औ ज्योति।
जल पृथिवी और इन्द्रियों की मन की उत्पत्ति
अन्न वीर्य तप मन्त्रशक्ति कर्म और लोक।
पड़े इस जगत में तभी नाम सभी इहलोक।
सोलह हैं ये कलाएँ इनका क्रमिक विकास।
प्रथम प्राण फिर है अहम है निज पर विश्वास।
नभ जल पावक गगन समीर।
बाह्य जगत के अवयव धीर।
जीभ त्वचा है आँख हैं नाक और हैं कान।
ये इन्द्रिय पोषित करें मन को दें जग ज्ञान।
भोजन लगे शरीर को जिससे होति शक्ति। अब विचार उठने लगें जैसी मानस शक्ति। यह कहलाता मंत्र है फिर होते हैं कर्म। जैसा जिसका कर्म है वैसा ही जग मर्म।
कर्मों के अनुसार ही मिलते हमको नाम।
यह हैं सोलह कलाएँ मैंने कहीं तमाम।
पूर्ण पुरुष को हम अगर हीरा लेते मान।
सोलह पहलू हैं मगर हीरा मूल स्थान।
आत्म निरीक्षण जो करे करता सतत प्रयास।
छूटें सोलह कलाएँ पूर्ण पुरुष संग वास।
मैं ही तो हूँ यह पुरुष होता उसको ज्ञान।
कहीं नहीं हैं कलाएँ हुआ उसे यह भान।
स यथेमा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः
समुद्र प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिद्येते तासां
नाम रूपए समुद्र इत्येवं प्रोच्यते।
एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडश कलाः
पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति
भिद्येते चासां नामरूपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते
स एषोऽकलोऽमृतो भवति।
तदेष श्लोक।। 5।।
बहती जब नदियाँ रहें अलग अलग हैं नाम।
जब आ मिलें समुद्र में खोएँ अपने नाम।
सब ही अब तो बन गईं सागर उठे तरंग।
कहाँ कलाएँ अब रहीं पूर्ण पुरुष केसंग।
नाम शक्ल सब खो गए हो गए एकाकार।
रहा अकेला पुरुष ही अमृत सर्वाधार।
अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्ठिताः।
तं वेद्यं पुरुषों वेदयथा मा वो मृत्युः परिव्यथा इति।। 6।।
ज्यों पहिए के सारे आरे धुरी से जुड़ें जाय। सभी कलाएँ पुरुष की केन्द्र से रहीं आय।
बाहर जाती कलाएँ दें जग का अहसास।
जब केन्द्रित हों मध्य में हो इन सब का ह्रास।
शाश्वत अमृत सत्य से इनका हुआ विकास।
जाकर उससे ही मिलें जब हो आत्म प्रकाश।
उसे जानना ही सदा जीवन का अरमान।
कालचक्र से अन्यथा कैसे हो अवसान।
तान होवाच--
एतावदेवाहमेतत्परं ब्रह्म वेद।
नातः परमस्तीति।। 7।।
पिप्पलाद ने यों दिया शिष्यों को उपदेश।
परमसत्य को जान ब्रह्म विद्या होती है शेष
इतना ही मैं जानता परमब्रह्म का ज्ञान।
इससे बढ़कर कुछ नहीं जिसे सको तुम जान।
ते तमर्चयन्तस्त्वं हि नः पिता
योऽस्माकमविद्यायाः परं पारं तारयसीति
नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः।। 8।।
गहन अविद्या का सागर था ले आए पितु दूर।
करें अर्चना आप की ऋषि पितुश्री भरपूर। ऋषिगण की पूजा करें हमसब मिल कर आज।
आत्मा पर से ऋण हटे होय कृतार्थ समाज।
....... इति षष्ठः प्रश्न......
.... इति प्रश्नोपनिषद् समाप्ता ....
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