ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति न पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।।
ॐ शान्तिः।शान्तिः।। शान्तिः।।।
ॐ कान शुभ ही सुनें देखें आँख शुभ ही सर्वदा।
स्थिर स्वस्थ हाथों पावँ से करते रहें हम अर्चना।
पूर्ण आयु ही देवहित में हम सदा पूजा करें
हे देवो! हे पूजनीयो! आप सब रक्षा करें।इन्द्र वृद्ध प्रसिद्ध औ'सर्वज्ञ सूर्य आशीश दें।
आशीश दें हे वायु कष्टों से सदा रक्षा करें।
आध्यात्मिकी धन की करें रक्षा बृहस्पति बुद्धि दें।
हम समझ पाएँ वेद फिर स्वाध्याय और मनन करें।
अपने जीवन में उसे हर विधि सकें उतार। ॐ शान्ति दें! शांति दें! शांति दें! उपहार।
आधिदैविक वे विपद जो दैव की भेजी हुईं।
आधिभौतिक विपद जो जग कारणों से हो गईं।
और आध्यात्मिक विपद जिनका सृजन हमनै किया।
ज्ञान पथ की तीन बाधा ॐ हरलें सर्वदा।
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव
विश्वस्त कर्ता भुवनस्य गोप्ता।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठाम्
अथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह।। 1।।
प्रथम जन्मा ॐ ब्रह्म थे देवों में इनका सम्मान।
अखिल विश्व के सृजक और पालनकर्ता भी इन्हें जान।
ब्रह्मविद्या जो कि सारी विद्याओं का मूल।
बाह्य भीतरी जगत के सब ज्ञानों का मूल।
अग्रज पुत्र अथर्व थे दिया उसे यह ज्ञान।
गुरु-शिष्य की परम्परागत आगे बढ़ता जान।
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा
तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम्।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह
भारद्वाजोऽङ्गिरसो परावराम् ।। 2।।
ब्रह्मा ने ज्यों अथर्व को सिखलाया यह ज्ञान।
पूर्व काल में अंगि को उन ने किया बखान।
सत्यवाह को भारद्वाज कुल का गुणग्राही देखा।
सीखा उन से अंगिरा ने बढ़ी परम्परा रेखा।
जिस जिस गुरु को हो गया परमसत्य का ज्ञान।
योग्य शिष्य आया वहीं पाने को वह ज्ञान।
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं
विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।
कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते
सर्वमिदं विज्ञातंभवतीति।। 3।।
शौनक के मन में रही दुविधा एक महान।
आश्रम ऋषि अङ्गिरा का वहाँ किया प्रस्थान।
पूछा विधिवत पूज कर अपना प्रश्न विशेष।
किसे जान कर जानना रहे न कुछ भी शेष।
तस्मै स होवाच।
द्वै विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्
ब्रह्मविदो वदन्ति, परा चैवापरा च।। 4।।
ऋषि ने तब उससे कहा ब्रह्मविदों का ज्ञान।
परा और अपरा हुए ऊँचा नीचा ज्ञान।
तत्रापरा, ऋग्वेदो यजुर्वेदः
सामवेदो अथर्ववेदःशिक्षा
कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।। 5।।
अपरा विद्या में शामिल हैं वेद और वेदाङ्ग।
ऋग, यदु, साम, अथर्व हैं औ' छः उनके अंग।
स्वर, शास्त्र विधि से कर्म, छन्द व व्याकरण, का ज्ञान।
शब्दों की उत्पत्ति का औ' ज्योतिष का ज्ञान।
परा विद्या में निहित है बस अक्षर का ज्ञान।
जिस का नाश न हो सके उस अक्षर का ध्यान।
और अक्षरों से जिसे प्रकट न करने पाय। गहन विद्या अक्षरों से परे ले कर जाय।
यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्णम्
अचक्षुः श्रोत्रं तदपाणिपादम्।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं तदव्ययं
यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः।। 6।।***
जिसको न देखा जा सके, जिसको न पकड़ा जा सके।
जो है अजन्मा अतः मृत्यु कभी न जिसको पा सके।
ना हाथ- पाँव न बुद्धि- मन ही छू सकें जिसको कभी।
जिसके न कोई हाथ- पाँव नआँख- नाक व कान भी।
कोई नहीं ज्ञानेन्द्रियाँ, कोई नहीं कर्मेन्द्रियाँ
जो है स्वयं ही पूर्ण सत्य व पूर्ण ज्ञान यहाँ वहाँ।
शाश्वत है जो, है सब कहीं, उसके समस्त स्वरूप हैं।
अक्षर, असीमित है वही, उसके असीमित रूप हैं।
है सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, है सर्वज्ञ कर्ता सृष्टि का।
सुस्पष्ट है फैला हुआ है खेल ज्ञानी दृष्टि का।
यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः सम्भवन्ति।
यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि
तथाक्षरात् सम्भवतीह विश्वम्।। 7।।
सृष्टि बनी है ब्रह्म से उस प्रकार तत्काल
मकड़ी करती सृजन ज्यों निज शरीर से जाल।
किन्तु नहीं है ब्रह्म का स्वार्थ किए निर्माण।
केश बढ़ें जैसे स्वयं जब तक तन में प्राण।
उपजें पौधे औषधि धरा से अनायास।
और समा जाते वहीं जब हो जाय विनाश।
सत चित औ'आनन्द है सृष्टि सृजन आधार।
सृजन और विध्वंस क्रम होते बारम्बार।
तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते।
अन्नात् प्राणो मनःसत्यं लोकाःकर्मसु चामृतम्।। 8।।
ब्रह्म जब एकाग्र हो चिन्तन करें यों सृजन की।
सृजन के सुख से उगे तब अन्न प्राण व मन सभी ।
पञ्चभूत व जगत बनते कर्म औ' फल कर्म के।
चक्र यह चलता सदा यों कर्म औ' फल कर्म के।
यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तपः।
तस्मादेतद्ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायते।। 9।।
इति मुण्डकोपनिषदि प्रथममुण्डके प्रथम खण्डः।।
है सर्वविद सर्वज्ञ भी औ' ज्ञान का भंडार भी।
आनन्द में जिसने किया यह सृजन औ' संसार भी।
ब्रह्म से ही नाम का और रूप का निर्माण हो।
हर पल घटे का ज्ञान उसको खाद्य हो या प्राण हो।।
.... मुण्डकोपनिषद् के प्रथम मुण्डक का प्रथम खण्ड समाप्त.......
तदेतत्सत्यं मन्त्रेषु कर्माणि कवयो
यान्यपश्यंस्तानि त्रेतायां बहुधा सन्ततानि। तान्याचरथ नियतं सत्यकामा
एष वः पन्थाः सुकृतस्य लोके।। 1।।
वेदमन्त्रों में लिखा जो सत्य है ऋषि ज्ञान। नियमित कर वह साधना फल दें कर्म प्रदान।
यदा लेलायते ह्यर्चिः समिद्धे हव्यवाहने।
तदाज्यभागावन्तरेणाहुतीः प्रतिपादयेत्
(श्रद्धयाहुतम्) ।। 2।।
जब अग्नि लपटें नृत्य करतीं आहुति करें प्रदान।
लपटें दाएँ बाएँ हों, मध्य करो घृत दान।
यस्याग्निहोत्रमदर्शमपौर्णमासम्
अचातुर्मास्यामनाग्रयणमतिथिवर्जितं च।
अहुतमवैश्वदेवमविथिना हुतम्
आसप्तमांस्तस्य लोकान् हिनस्ति।। 3।।
अग्निहोत्र के साथ यदि दिया न जाए दान।
बलि देने की प्रथा का रखा न जाए मान।
नवचन्द्र पूर्णचन्द्रको जैसा शास्त्र विधान।
चतुर्मास और फसल कटे पर विधिवत कीजे दान।
विश्वदेव और अतिथि का विधिवत हो सम्मान।
शास्त्रों की इस रीति का हो न पूर्ण यदि ज्ञान।
अग्निहोत्र ऐसा करे सात लोक का नाश।
स्वयं, तीन पीढ़ी के पूर्वज, तीनों सन्तति नाश।
काली कराली च मनोजवा च
सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फुलिङ्गिनी विश्वरुची च देवी
लेलेयमाना इति सप्त जिह्वाः।। 4।।
काली, भयानक, शीघ्रगामी लपट मन सी
रक्तवर्ण, सुधूम्रवर्णा, फेंकती चिंगार सी।
अनेकवर्णा और उज्ज्वल, चमचमाती।
लपलपाती, सात ये जिह्वा अगन की।
एतेषु यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं चाहुतयो ह्याददायन्।
तं नयन्त्येताः सूर्यस्य रश्मयो यत्र देवानां पतिरेकोऽधिवासः।। 5।।
कर्मकाण्ड से किया है जिस ने हर इक बार।
जीवन भर करता रहा इच्छित उपसंहार ।
इच्छित फल की प्राप्ति दें मन के राजा इंद्र।
सूर्यकिरण ले जाएँगी उसे स्वर्ग के द्वार।
एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः।
सूर्यस्यरश्मिभिर्यजमानं वहन्ति।
प्रियांवाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य
एष वः पुण्य सुकृतो ब्रह्मलोकः।। 6।।
आओ इधर आओ इधर ये कह रहीं यजमान से।
प्रज्वलित लपटें कह रहीं ये प्रेम से सम्मान से।
आहूति देते समय जिसकी वासना जैसी रहीं।
मृत्यु के उपरांत किरणें उसे ले जाएँ वहीं।
प्लवा ह्येते अदृढा यज्ञरूपायेप्रौ अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म।
एतच्छ्रेयो ये अभिनन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यन्ति।। 7।।
यद्यपि अठारह स्तम्भ फिर भी यज्ञ नौका क्षीण हैं।
कर्म विधिवत कर रहे सुख के लिए जो लीन हैं।
जो लोक मिलते पुण्य से जा कर वहाँ सुख भोगते।
जब क्षीण होते पुण्य तो वापस धरा पर लौटते।
वे मूर्ख फिर से जन्म मृत्यु चक्र में फँसते यहीं।
माँ श्रुति उन्हें समझा रही हैं लक्ष्य जीवन यह नहीं।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः।
जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।। 8।।
हैं मूर्ख समझें धीर निज को बुद्धि से क्या वास्ता।
फिरते रहें ज्यों अन्ध अन्धों को दिखाए रास्ता।
अविद्यायां बहुधा वर्तमान वयं कृतार्थता इत्यभिमन्यन्ति बालाः।
यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात्
तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते।। 9।।
बालक बुद्धि से लगा उसे पा लिया जीवन ज्ञान।
कर्मकांडी सीख न पाया कुछ भी सका न जान।
जब तक इच्छा से रहा मन में उसे लगाव।
जिन लोकों में जाएगा पुनः यहीं पर आव।
इष्टापूर्तं मन्यमानाः वरिष्ठं
नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वा
इमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति।। 10।।
इष्ट एवं पूर्त हैं दो तरह के शुभ कर्म सब।
देव सेवा इष्ट है औ' पूर्त जनहित कर्म सब
पुण्य लोकों में न होता दर्द का अहसास भी।
सुख भोग लेते अंततःजब तक वहीं आवास भी।
सुख के सिवा ये मूर्ख नर जानें न पुण्य व दान फल।
इस हेतु करते कामना ये स्वर्ग जाने की अचल।
अंततः नर निज पुण्य फल से स्वर्ग में सुख से घिरें।
हो अंत पुण्यों का पुनः आकर धरातल पर गिरें।
तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये
शान्ता विद्वांसो भैक्ष्यचर्यां चरन्तः।
सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति
यत्रामृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा।। 11।।
तप श्रद्धा के साथ ही रहते जो वन माँहिं।
जो विदुजन निज इन्द्रियाँ बस में रखते ताहिं।
भिक्षुक सा भोजन करें सूर्य द्वार से जाहिं। भले बुरे सब कर्म जो तजें धरा पर आहिं।
अमर हुए रहते सदा परमब्रह्म के साथ।
प्रज्ञान के प्रथम गुरु प्रथमपुरुष के साथ।
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो
निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।
तदविज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्
समित्पाणिःश्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्।। 12।।
कर्मजगत का जो कर चुका स्वयं अवलोकन।
किन्तु न सत्य मिला यूँ जो कर चुका विमोचन।
करे खोज गुरु की ले समिधा अपने कर में।
गुरु जो हों वेदज्ञ सत्य हो हृदयान्तर में।
तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक्
प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।
येनाक्षरं पुरुषों वेद सत्यं
प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्।। 13।।
उस शिष्य को मन और इन्द्रिय शान्त जिसके हो चुकें।
गुरु करें दीक्षित ब्रह्मविद्या के सभी गुण दे चुकें।
फिर परम सत्य मिले उसे हो पूर्ण उसका ज्ञान भी।
अमर पुरुष प्रथम मिलें हो साथ प्राप्त स्थान भी।
प्रथम मुण्डक द्वितीय खण्ड समाप्त।
तदेतत् सत्यं यथासुदीप्तात् पावकाद्
विस्फुलिङ्गाः सहस्रशःप्रभवन्ते सरूपाः।
तथाऽक्षरादविविधाः सोम्य भावाः
प्रजायन्ते तत्र चैवापि यन्ति।। 1।।
सत्य है यह जिस तरह चिंगारियांँ ही आग से।
उठें चारों ओर बिखरें फिर समाएँ आग में। जीव भी यों ब्रह्म से निकले फले फूले यहाँ।
ब्रह्म ही में जा मिले कर कार्य जीवन के यहाँ।। 1।।4
दिव्यो ह्यमूर्तः पुरुषः सबाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।
अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात् परतः परः।। 2।।
दिव्य, सत्यस्वरूप पुरुष, अमूर्त और अपूर्व है।
अज, बाह्य भीतर में समाहित, प्राण से भी पूर्व है।
यह शुद्ध है, इसका सभी विधि हर जगह विस्तार है।
अमर, अवर्णनीय, मन से परे, चेतन सार है।। 2।।
एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वेन्द्रियाणि च।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथ्वी विश्वस्य धारिणी।। 3।।
प्राण, मन, दस इन्द्रियाँ, आकाश, वायु व ज्योति भी।
अग्नि, पानी और धरा जो धारती हैं ये सभी।। 3।।
यदि सूत की कारीगरी हो, वस्त्र भी हो सूत का।
पर सूत जाएँ खोलते तो ढेर लगता सूत का।
यदि सूत को उल्टा घुमा दें, ढेर रूई का रहा।
कहँ श्रुति सभी कुछ ब्रह्म से निकले, उसी में जा रहा।।
अग्निर्मूर्धा चक्षुषी चन्द्रसूर्यौ
दिशः श्रोत्रे वाग् विवृताश्च वेदाः।
वायुः प्राणों हृदयं विश्वमस्य
पद्भ्यां पृथ्वी ह्येष सर्वभूतान्तरात्मा।। 4।।
स्वर्ग जैसे अग्नि मस्तक आँख सूर्य व चाँद सी।
हैं दिशाएँ आकाश के चहुँ भाग उनके कान सी।
वेद उनकी वाणि है औ' वायु उनके श्वास सा।
ब्रह्माण्ड उनका मन व निकली पाँव से उनके धरा।
हैं सत्य सब का अन्तरात्मा और विस्तृत सब कहीं।
सब कुछ उन्हीं की शक्ति से है उन बिना है कुछ नहीं।। 4।।
तस्मादग्निः समिधो यस्य सूर्यः
सोमात् पर्जन्य औषधयः पृथिव्याम् ।
पुमान् रेतः सिञ्चति योषितायां
बह्वीःप्रजाः पुरुषात् सम्प्रसूताः।।5।।
पञ्चाग्नि वर्णन करें श्रुति अद्भुत व समझा कर कहें।
व्यापक सभी दिश में रहे उसको प्रथम अग्नि कहें।
सूर्य है समिधा प्रथम अग्नि की ऐसा श्रुति कहें।
चन्द्र से बरसें जो बादल दूसरी अग्नि कहें। अन्न औषधि जन्म लेती धरा से जो तीसरी।
जो पुरुष उसको खा रहा वह अग्नि है चौथी कही।
फिर वीर्य सिञ्चित करे पंचम अग्नि में जो नार है।
यों धरा पर हो प्रजा वर्धन दिव्य पुरुष प्रकार है।। 5।।
तस्मादृचः साम यजूंषि दीक्षा यज्ञाश्च सर्वे क्रतवो दक्षिणाश्च।
संवत्सरश्च यजमानश्च लोकाः सोमो यत्र पवते यत्र सूर्यः।। 6।।
उन पुरुष से पैदा हुईं वेदिक ऋचाएँ, मंत्र सब।
बलि विधि व प्रारंभिक क्रियाएँऔर जितने यंत्र सब।
स्तम्भ औ' वह बलिपशु, ब्राह्मण तथा यजमान भी।
यज्ञ सामग्री तथा सब दिया जाता दान भी।
बलि समय, बलि दाता तथा जो प्राप्त हों वे लोक भी।
पावन किए जो सूर्य चन्द्र ने वही सारे लोक भी।
बलि कार्य से तात्पर्य है करते सभी जो कर्म हम।
संचित करें अनुभव प्रकृति के जानते हैं मर्म हम।। 6।।
तस्माच्च देवा बहुधा सम्प्रसूताःसाध्या मनुष्याः पशवो वयांसि।
प्राणापानौ व्रीहियवौ तपश्च श्रद्धा सत्यं ब्रह्मचर्यं विधिश्च।। 7।।
इस मंत्र में माँ श्रुति बताती सृष्टि कर्म विधान भी।
उन से प्रकट कैसे हुए जो दिव्य हैं ,क्रम से सभी।
वसु, रुद्र औ'आदित्य ,सारे देवता, मानव सभी।
पशु ,पक्षि, प्राण, अपान एवं अन्न का भक्षण सभी।
नर अन्न-भक्षण से करे तप और श्रद्धा का सृजन।
सत्य, निष्ठा, ब्रह्मचर्य व इस दिशा में ही गमन।
इन गुणों को जब जीव पूरे ध्यान से धारण करे।
तो इस दिशा में अग्रसर हो जन्म भर पालन करे।। 7।।
सप्त प्राणाः प्रभवन्ति तस्मात्
सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा
गुहाशया निहिताः सप्त सप्त।। 8।।
उच्च कोटि की कविता है यह उच्च कोटि का ज्ञान।
जिसमें करते ऋषि श्रुतियों के सुंदर यह व्याख्यान।
सात छिद्र माथे के हैं ये प्राण व इन्द्रिय स्थान।
इनसे निकलें सप्त अग्नि जो शक्ति करें पहचान।
आँखें देखें शक्ल रंग औ'ध्वनि सुनते हैं कान।
समिधा से ही रहें प्रज्वलित अग्नि इन्द्रिय स्थान।
ध्वनि ही यदि न हो तो कहिए किसे सुनेंगे कान।
वस्तु न हो तो रूप रंग को आँख न सकती जान।
सप्त होम हैं इन्द्रिय जब कर पायँ वस्तु का ज्ञान।
वही ज्ञान जो अग्नि करें उदरस्थ पायँ सम्मान।
सप्त लोक हैं छिद्र जहाँ से भीतर आता ज्ञान।
ज्ञान तन्तु पहुँचाएँ उनको निज गंतव्य स्थान।
सुप्तावस्था में जब करता हृदय स्थान विश्राम।
कर्मेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय सोतीं अब इन का क्या काम?
दिव्य पुरुष से ये सब निकलें श्रुति का यही बखान।
सुंदर सा ये चित्र बनाएँ ऋषि का अद्भुत ज्ञान।। 8।।
अतः समुद्रा गिरियश्च सर्वेऽस्मात्
स्यन्दन्ते सिन्धवः सर्वरूपाः ।
अतश्च सर्वा ओषधयो रसश्च
येनैष भूतैस्तिष्ठते ह्यन्तरात्मा।। 9।।
उनसे ही निकलें समुद्र उन से ही पर्वत सब विशाल।
कलकल करती नदियाँ जिनसे पनपें सब वनमाल।
उन के ही रस से औषध से पलते सारे जीव।
उन आत्मा से ही निकले सब जीव और निर्जीव।
बाहर जो विस्तृत है औ'भीतर है जिन का वास।
आत्मा की ही वृहद् शक्ति से करते सभी विकास।। 9।।
पुरुष एवेदं विश्व कर्म
तपो ब्रह्म परामृतम् ।
एतद्यो वेद निहितं गुहायां
सोऽविद्याग्रन्थिं विकिरतीह सोम्य।। 10।।
वही पुरुष हैं विश्व भी कर्म और हैं ज्ञान।
ब्रह्म वही हैं अमर भी है सर्वोच्च स्थान।
जो यह जाने हृदय गुहा में ही है उनका वास।
कटे ग्रंथि अज्ञान की करे ब्रह्म में वास।। 10।।
इति मुण्डकोपनिषदि द्वितीयमुण्डके प्रथमः खण्डः।।
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