Wednesday, 3 March 2021

MAHESH CHANDRA NAQSH... GHAZAL.. CHEHRA - E- ZINDAGI NIKHAR AAYAA...

चेहरा - ए - ज़िन्दगी निखर आया।
जब कभी हम ने जाम छलकाया। 

Face of life glowed fine. 
When I spilled glass of wine. 

शाम- ए - हिज्राँ भी इक क़यामत थी।
आप आए तो मुझको याद आया।

Parting night was doom. 
As you come, memories pine.

रंग फीका पड़ा वफ़ाओं का। 
आज कुछ इस तरह वो शरमाया।

Colours of faith looked dim. 
She was so coy, on line. 

क्या हुई दो दिलों की मासूमी? 
हुस्न रूठा न इश्क़ पछताया। 

Love repented nor beauty sulked. 
Two hearts that failed to pine.

कुछ तो मजबूरियां मुक़द्दर थीं। 
तेरी क़ुर्बत ने और तड़पाया। 

Restlessness was fate.
Torture was nearness sign. 

क्या क़यामत थी कमनिगाही भी। 
हर हक़ीक़त को जिस ने झुटलाया।

Short sightedness was doom. 
It falsified  truths so fine.

हाय किस किस मुक़ाम पर दिल को। 
उस उचटती नज़र ने भटकाया। 

Alas to which sites was heart. Directed by negligent glance fine.

ख़ुदशनासी थी जुस्तजू तेरी।
तुझ को ढूँढा तो आप को पाया। 
Self-awareness was the quest.
Your search could lead to mine.

'नक़्श' आँखों में आ गए आँसू।
आज ऐसे में कौन याद आया। 
O'Naqsh' tears came to eyes.
Whose recollection is mine? 

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