हमने न आह की कभी उसने न वाह की।
थे ग़ैर भी शरीक हमारे अज़ीज़ बन।
हमने न क़द्र की कभी उनकी सलाह की।
दामन पे गुल-ओ-ख़ार का हक़ एक सा ही है।
किस वास्ते बशर ने न की सम्त चाह की।
हर शख़्स के क़रीब चली आ रही है मौत। जिसने न फ़िक्र की कभी भी रस्म-ओ-राह की।
कहते हो अपनी बात भी, रहते हो मगर 'मौन' ।
हमको न चाह ऐसे किसी ख़ैरख़्वाह की।
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