Friday, 11 March 2022

NIDAA FAAZLI......... COUPLETS

निदा फ़ाज़ली के शेर

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FAVORITE

होश वालों को ख़बर क्या बे-ख़ुदी क्या चीज़ है

इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है

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कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता

कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता

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हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी

जिस को भी देखना हो कई बार देखना

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धूप में निकलो घटाओं में नहा कर देखो

ज़िंदगी क्या है किताबों को हटा कर देखो

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बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

चार किताबें पढ़ कर ये भी हम जैसे हो जाएँगे

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घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें

किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए

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दुश्मनी लाख सही ख़त्म कीजे रिश्ता

दिल मिले या मिले हाथ मिलाते रहिए

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कोशिश भी कर उमीद भी रख रास्ता भी चुन

फिर इस के ब'अद थोड़ा मुक़द्दर तलाश कर

हम लबों से कह पाए उन से हाल-ए-दिल कभी

और वो समझे नहीं ये ख़ामुशी क्या चीज़ है

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कुछ भी बचा कहने को हर बात हो गई

आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई

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उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम था

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

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कोई हिन्दू कोई मुस्लिम कोई ईसाई है

सब ने इंसान बनने की क़सम खाई है

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अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं

रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं

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    बे-नाम सा ये दर्द ठहर क्यूँ नहीं जाता

    जो बीत गया है वो गुज़र क्यूँ नहीं जाता

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    यही है ज़िंदगी कुछ ख़्वाब चंद उम्मीदें

    इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

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    तुम से छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान था

    तुम को ही याद किया तुम को भुलाने के लिए

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    उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा

    वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा

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    दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है

    मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है

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    हर एक बात को चुप-चाप क्यूँ सुना जाए

    कभी तो हौसला कर के नहीं कहा जाए

    सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो

    सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

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    दिल में हो जुरअत तो मोहब्बत नहीं मिलती

    ख़ैरात में इतनी बड़ी दौलत नहीं मिलती

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    सब कुछ तो है क्या ढूँडती रहती हैं निगाहें

    क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूँ नहीं जाता

    • टैग्ज़ : घर 
      और 3 अन्य
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    वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में

    जो दूर है वो दिल से उतर क्यूँ नहीं जाता

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    एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक

    जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा

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    इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम बुझे

    रौशनी ख़त्म कर आगे अँधेरा होगा

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    फ़ासला नज़रों का धोका भी तो हो सकता है

    वो मिले या मिले हाथ बढ़ा कर देखो

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    नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढिए

    इस शहर में तो सब से मुलाक़ात हो गई

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    गिरजा में मंदिरों में अज़ानों में बट गया

    होते ही सुब्ह आदमी ख़ानों में बट गया

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    बदला अपने-आप को जो थे वही रहे

    मिलते रहे सभी से मगर अजनबी रहे

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      अब ख़ुशी है कोई दर्द रुलाने वाला

      हम ने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला

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        यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता

        मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

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        जितनी बुरी कही जाती है उतनी बुरी नहीं है दुनिया

        बच्चों के स्कूल में शायद तुम से मिली नहीं है दुनिया

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        हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा

        मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समुंदर मेरा

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          अब किसी से भी शिकायत रही

          जाने किस किस से गिला था पहले

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            कुछ लोग यूँही शहर में हम से भी ख़फ़ा हैं

            हर एक से अपनी भी तबीअ'त नहीं मिलती

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              मेरी ग़ुर्बत को शराफ़त का अभी नाम दे

              वक़्त बदला तो तिरी राय बदल जाएगी

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                हर तरफ़ हर जगह बे-शुमार आदमी

                फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी

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                  बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने

                  किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

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                  बहुत मुश्किल है बंजारा-मिज़ाजी

                  सलीक़ा चाहिए आवारगी में

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                    मुमकिन है सफ़र हो आसाँ अब साथ भी चल कर देखें

                    कुछ तुम भी बदल कर देखो कुछ हम भी बदल कर देखें

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                      वही हमेशा का आलम है क्या किया जाए

                      जहाँ से देखिए कुछ कम है क्या किया जाए

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                        ग़म है आवारा अकेले में भटक जाता है

                        जिस जगह रहिए वहाँ मिलते-मिलाते रहिए

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                        कुछ तबीअ'त ही मिली थी ऐसी चैन से जीने की सूरत हुई

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                          पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है

                          अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं

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                          कहाँ चराग़ जलाएँ कहाँ गुलाब रखें

                          छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

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                            ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई

                            जो आदमी भी मिला बन के इश्तिहार मिला

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                              ख़ुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को

                              बदलते वक़्त पे कुछ अपना इख़्तियार भी रख

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                                यक़ीन चाँद पे सूरज में ए'तिबार भी रख

                                मगर निगाह में थोड़ा सा इंतिज़ार भी रख

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                                  किस से पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ कई बरसों से

                                  हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा

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                                  किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं

                                  तुम अपने आप को ख़ुद ही बदल सको तो चलो

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                                    रिश्तों का ए'तिबार वफ़ाओं का इंतिज़ार

                                    हम भी चराग़ ले के हवाओं में आए हैं

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                                      बड़े बड़े ग़म खड़े हुए थे रस्ता रोके राहों में

                                      छोटी छोटी ख़ुशियों से ही हम ने दिल को शाद किया

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                                        अपने लहजे की हिफ़ाज़त कीजिए

                                        शेर हो जाते हैं ना-मालूम भी

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                                        बाग़ में जाने के आदाब हुआ करते हैं

                                        किसी तितली को फूलों से उड़ाया जाए

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                                          हम भी किसी कमान से निकले थे तीर से

                                          ये और बात है कि निशाने ख़ता हुए

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                                            दुनिया जीत पाओ तो हारो आप को

                                            थोड़ी बहुत तो ज़ेहन में नाराज़गी रहे

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                                              कहता है कोई कुछ तो समझता है कोई कुछ

                                              लफ़्ज़ों से जुदा हो गए लफ़्ज़ों के मआनी

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                                                एक बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा

                                                जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला

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                                                  इस अँधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी

                                                  रात जंगल में कोई शम्अ जलाने से रही

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                                                    ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ दूर के साथी हैं

                                                    फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है रोना है

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                                                      मुट्ठी भर लोगों के हाथों में लाखों की तक़दीरें हैं

                                                      जुदा जुदा हैं धर्म इलाक़े एक सी लेकिन ज़ंजीरें हैं

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                                                        ख़ुश-हाल घर शरीफ़ तबीअत सभी का दोस्त

                                                        वो शख़्स था ज़ियादा मगर आदमी था कम

                                                        •  
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                                                        ज़रूरी क्या हर इक महफ़िल में बैठें

                                                        तकल्लुफ़ की रवा-दारी से बचिए

                                                          •  
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                                                          हमारा 'मीर'-जी से मुत्तफ़िक़ होना है ना-मुम्किन

                                                          उठाना है जो पत्थर इश्क़ का तो हल्का भारी क्या

                                                            •  
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                                                            दूर के चाँद को ढूँडो किसी आँचल में

                                                            ये उजाला नहीं आँगन में समाने वाला

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                                                            ख़तरे के निशानात अभी दूर हैं लेकिन

                                                            सैलाब किनारों पे मचलने तो लगे हैं

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                                                              ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं

                                                              ज़बाँ मिली है मगर हम-ज़बाँ नहीं मिलता

                                                                •  
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                                                                बृन्दाबन के कृष्ण कन्हय्या अल्लाह हू

                                                                बंसी राधा गीता गैय्या अल्लाह हू

                                                                  •  
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                                                                  बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ

                                                                  याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ

                                                                    •  
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                                                                    दिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रही

                                                                    दोस्ती अपनी भी कुछ रोज़ ज़माने से रही

                                                                      •  
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                                                                      ये काटे से नहीं कटते ये बाँटे से नहीं बटते

                                                                      नदी के पानियों के सामने आरी कटारी क्या

                                                                        •  
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                                                                        किताबें यूँ तो बहुत सी हैं मेरे बारे में

                                                                        कभी अकेले में ख़ुद को भी पढ़ लिया जाए

                                                                          •  
                                                                          •  
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                                                                          सूरज को चोंच में लिए मुर्ग़ा खड़ा रहा

                                                                          खिड़की के पर्दे खींच दिए रात हो गई

                                                                            •  
                                                                            •  
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                                                                            तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस हो

                                                                            जहाँ उमीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता

                                                                              •  
                                                                              •  
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                                                                              हर जंगल की एक कहानी वो ही भेंट वही क़ुर्बानी

                                                                              गूँगी बहरी सारी भेड़ें चरवाहों की जागीरें हैं

                                                                                •  
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                                                                                मिरे बदन में खुले जंगलों की मिट्टी है

                                                                                मुझे सँभाल के रखना बिखर जाऊँ में

                                                                                  •  
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                                                                                  चराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है

                                                                                  ख़ुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

                                                                                    •  
                                                                                    •  
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                                                                                    गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम

                                                                                    हर क़लमकार की बे-नाम ख़बर के हम हैं

                                                                                      •  
                                                                                      •  
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                                                                                      घी मिस्री भी भेज कभी अख़बारों में

                                                                                      कई दिनों से चाय है कड़वी या अल्लाह

                                                                                        •  
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