मेरे महबूब की आँखों सा बरस, तो मानूँ।
कैसे हैं मेरे ये हालात, दूर बैठे हुए।
पढ़ सको मन की अगर बात सजन, तो जानूँ।
..... रवि मौन.....
जानू-जानू को ही सुनने को गए कान तरस।
अब भी न आओगे सजन, बीत गए इतने बरस।
घेरे बैठे हैं मेरे मन को, घेरे बाहों के।
कैसे समझाऊँ , कि जलता है बदन, आहों से।
..... रवि मौन.....
तुम न समझोगे, कि समझौते की आदत ही नहीं।
मैं ही झुक जाती हूँ, लो अब तो बग़ावत भी नहीं।
आ भी जाओ नयन सूख गए बरस बरस।
और बाहों में चले आने को तन तरस तरस।
कह रहा है तुम्हें निर्मोही, भला कैसे सुनूँ ?
और कब तक कहो ये सपने हवा में ही बुनूँ ?
...... रवि मौन......
ये वहम ही तो है तेरे मन का।
इस जगत में नहीं कुछ पराया।
आस टूटी तो विश्वास टूटा।
साँस टूटी, हुआ तन पराया।
..... काव्य रूप..... रवि मौन.....
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