तीर्थ - यात्रा को चली अपने दल के साथ।
सखी रूप को देख कर रख बालक का ध्यान।
वस्त्र उतारें कृष्ण के, सोचा करें स्नान।
बालक से क्या शर्म है, यह भी है यदि साथ।
नहला दूँगी इसे भी, पहले धो लूँ माथ
बालक को निर्वस्त्र कर, देखी टेढ़ी टाँग।
ये मुझ से क्या हो गया, सखी करेगी
माँग ?
छोटा सा शिशु भी नहीं मैं क्यों सकी संभाल?
लगी प्रेम से तेल ले शिशु - घुटने पर
डाल।
मैं भी कितनी मूर्ख हूँ रखा न शिशु का ध्यान।
होना था जो हो गया, होनी है बलवान।
एक माह तक प्यार से मालिश कर निज हाथ।
भूली अपनी प्रार्थना, रक्षा कर रघुनाथ !
बाल-कृष्ण को प्रेम से रोज़ लगाती भोग।
मल-मल कर सीधी हुई टाँग, अजब संयोग।
खड़ा देख नंदलाल को हो गई सखी निहाल।
सारा जीवन कट गया, दिखे नहीं नंदलाल।
छुए सखी के चरण तब, बोली रो कर बैन।
एक माह में मिल रहे नंद-लला संग नैन।
सारा जीवन व्यर्थ है, व्यर्थ तीर्थ का दान।
सखी - पाँव छू कर मिटा, मेरा सब अभिमान।
प्रेम नहीं तो कुछ नहीं, झूटे तप, जप, नेम।
नंदलला को जीत ले जो, वह तो है प्रेम।
..... काव्य रूप..... रवि मौन.....
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