इतना विशाल, इतना गहरा।
सागर का आदिम मन ठहरा।
है दूर क्षितिज पर शांति मगर,
तट पर कोलाहल का पहरा।
रेतीले, पथरीले तट पर, सर टकरा कर क्यूँ मरती हैं ?
क्या लहरें ढूँढा करती हैं ?
हौले से उठ कर आती हैं।
उठती हैं, फिर गिर जाती हैं।
हारे साथी की कथा-व्यथा,
सुनती हैं, गले लगाती हैं।
भारी मन से या क्रोधित हो, अविरल बढ़ती ही रहती हैं।
क्या लहरें ढूँढा करती हैं ?
जो कुछ भी देंगी, ले लेगा।
क्या क्षुद्र किनारा दे देगा?
लहरों का यह देना देना,
मानव-मन कैसे समझेगा ?
इस लिए सदा सागर-तट पर, आँखें कुछ खोजा करती हैं।
क्या लहरें ढूँढा करती हैं ?
दीघा..... 1987
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