Tuesday, 23 August 2022

AZIIZ BAANO DAARAAB WAFAA.. GHAZAL.. KABHII GOKUL KABHII RAADHAA KABHII MOHAN BAN KE.....

कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के 
मैं ख़यालों में भटकती रही जोगन बन के 

At times as Gokul, Raadhaa or Mohan's form. 
I have roamed in the thoughts
in ascetic form. 

हर जनम में मुझे यादों के खिलौने दे के 
वो बिछड़ता रहा मुझ से मिरा बचपन बन के 

Giving toys of memories to me in each life. 
He has left me like my childhood form. 


मेरे अंदर कोई तकता रहा रस्ता उस का 
मैं हमेशा के लिए रह गई चिलमन बन के 

Someone had been waiting for him within me. 
For always I was left in the drapery form. 

ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की 
सिर्फ़ इक लम्हा बरसता रहा सावन बन के 

Life long I stood soaking on the rooftop. 
He poured for a moment in the  rain form. 

मेरी उम्मीदों से लिपटे रहे अंदेशों के साँप 
उम्र हर दौर में कटती रही चंदन बन के 

Snakes of doubt entwined my hopes. 
Each time life was spent in sandal form. 

इस तरह मेरी कहानी से धुआँ उठता है 
जैसे सुलगे कोई हर लफ़्ज़ में ईंधन बन के 

Smoke arises from my story in this way. 
As if  every word is a log in ember form. 


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