रौद्र रूप है, कौन देख पाएगा इनको आज?
यज्ञ कुण्ड में कूदीं, सह न सकीं स्वामी अपमान।
शिवगण ने कर ध्वंस यज्ञ, ले ली बहुतों की जान।
सिर काटा फिर दक्ष प्रजापति का, दे उसको दण्ड।
सती देह कैलाश ले गए, गण हो गए प्रचण्ड।
हरि ने अपने चक्र से, काट काट कर देह।
जहाँ जहाँ टुकड़े गिरे, वहीं मात का स्नेह।
सती तीर्थ वे बन गए, पूजा करते लोग।
कटते तन मन के यहाँ, सभी तरह के रोग।
जो भी माँगो मात से, मिल जाता तत्काल।
दर्शन से ही हो गए, कितने लोग निहाल।
शिवजी और सती जाते थे, नभ पथ से कैलाश।
शिव मानव को नमन कर रहे, कैसे हो विश्वास?
राम लखन रोते जाते थे, ले सीता का नाम।
सीता का धर रूप सती पहुँचीं, तो किया प्रणाम।
मात कहाँ हैं सदाशिव, दर्शन सुख की आस।
शिव समझे सब सार, जब सती गईं कैलाश।
अब न सती की देह से, होंगे पति के कर्म।
ये तो माँ का रूप धर, भूलीं अपना धर्म।
लगी समाधि सदाशिव की, तो गणना काल बिसारी।
राघवेंद्र का ध्यान लगाकर, बैठ गए त्रिपुरारी।
दक्ष यज्ञ कर रहे, बुलाए जगह जगह से देव।
पर न बुलाया सती को, औ' छोड़े महादेव।
माँ के घर जाने का मन है, कहा सती ने स्वामी।
बिना निमंत्रण उचित नहीं है, बोले अंतर्यामी।
त्रिया हठ किया सती ने, भेजे कुछ गण संग।
आगे पीछे जो हुआ, मैं कह चुका प्रसंग।
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