तट से वापस जाती लहरें।
कब से होता है यह निनाद
यह है भोले काअहंनाद
सागर तट पर मच रहा शोर
मन सुन कर होता है विभोर
लहरें कुछ ले कर आती हैं।
तट को कुछ दे कर जाती हैं
मैं क्या जानूँ इनके मन की
मैं क्या जानूँ अपने मन की
सागर तट पर आकर यह मन
करता है कब से कुछ चिंतन
वह क्या है नहीं सूझता यह।
मानो फिर बह जाता है वह
मैं घूम रहा मन ख़ाली है
लेकिन इक बात निराली है
आकर मिलती है शांति यहाँ
मिटती हैं कितनी भ्रांति यहाँ
मत बोल यहाँ सागर तट है
मन खोल यहाँ सागर तट है
सुन ले जो कुछ सुन पाता है
प्रकृति से सुमधुर नाता है
कल फिर से शहरी जंगल में
होगा वैवादिक दंगल में
Very nice. 👍
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