Sunday, 16 October 2022

NAASIR KAZMI.. GHAZAL.. MUSALSAL BEKALII DIL KO RAHII HAI...

मुसलसल बेकली दिल को रही है



मगर जीने की सूरत तो रही है

मैं क्यूँ फिरता हूँ तन्हा मारा मारा
ये बस्ती चैन से क्यूँ सो रही है

चले दिल से उम्मीदों के मुसाफ़िर
ये नगरी आज ख़ाली हो रही है

न समझो तुम इसे शोर-ए-बहाराँ
ख़िज़ाँ पत्तों में छुप कर रो रही है

हमारे घर की दीवारों पे 'नासिर'
उदासी बाल खोले सो रही है

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