Saturday, 12 November 2022

BASHIR BADR.. GHAZAL

जब तक निगार-ए-दश्त का सीना दुखा न था 

सहरा में कोई लाला-ए-सहरा खिला न था 

दो झीलें उस की आँखों में लहरा के सो गईं 

उस वक़्त मेरी उम्र का दरिया चढ़ा न था 

जागी न थीं नसों में तमन्ना की नागिनें 

उस गंदुमी शराब को जब तक चखा न था 

ढूँडा करो जहान-ए-तहय्युर में उम्र भर 

वो चलती फिरती छाँव है मैं ने कहा न था 

इक बेवफ़ा के सामने आँसू बहाते हम 

इतना हमारी आँख का पानी मरा न था 

वो काले होंट जाम समझ कर चढ़ा गए 

वो आब जिस से मैं ने वुज़ू तक किया न था 

सब लोग अपने अपने ख़ुदाओं को लाए थे 

एक हम ऐसे थे कि हमारा ख़ुदा न था

वो काली आँखें शहर में मशहूर थीं बहुत 

तब उन पे मोटे शीशों का चश्मा चढ़ा न था 

मैं साहिब-ए-ग़ज़ल था हसीनों की बज़्म में 

सर पर घनेरे बाल थे माथा खुला न था

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