Saturday, 12 November 2022

BASHIR BADR.. GHAZAL

इक परी के साथ मौजों पर टहलता रात को 

अब भी ये क़ुदरत कहाँ है आदमी की ज़ात को 

जिन का सारा जिस्म होता है हमारी ही तरह 

फूल कुछ ऐसे भी खिलते हैं हमेशा रात को 

एक इक कर के सभी कपड़े बदन से गिर चुके 

सुब्ह फिर हम ये कफ़न पहनाएँगे जज़्बात को 

पीछे पीछे रात थी तारों का इक लश्कर लिए 

रेल की पटरी पे सूरज चल रहा था रात को 

आब ओ ख़ाक ओ बाद में भी लहर वो आ जाए है 

सुर्ख़ कर देती है दम भर में जो पीली धात को 

सुब्ह बिस्तर बंद है जिस में लिपट जाते हैं हम 

इक सफ़र के बा'द फिर खुलते हैं आधी रात को 

सर पे सूरज के हमारे प्यार का साया रहे 

मामता का जिस्म माँगे ज़िंदगी की बात को 


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