था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का..... मीर तक़ी मीर.....
दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
वीरान हैं मोहल्ले सुनसान घर पड़े हैं
..... मुसहफ़ी.....
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' ये दिल्ली की गलियां छोड़ कर
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या?
ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से
दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई
तज़्किरा देहली-ए-मरहूम काऐ दोस्त न छेड़
न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़
..... हाली.....
हज़ारों लाखों दिल्ली में मकां हैं
मगर पहचानने वाले कहाँ हैं
..... मोहम्मद अल्वी.....
दिल की बस्ती भी शहर-ए-दिल्ली है
जो भी गुज़रा है उसने लूटा है
..... बशीर बद्र.....
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