Thursday, 3 November 2022

DELHI IN THE EYES OF POETS

दिल्ली में आज भीक भी मिलती नहीं उन्हें 
था कल तलक दिमाग़ जिन्हें ताज-ओ-तख़्त का..... मीर तक़ी मीर.....

दिल्ली हुई है वीराँ सूने खंडर पड़े हैं
वीरान हैं मोहल्ले सुनसान घर पड़े हैं 
..... मुसहफ़ी.....

इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए 'ज़ौक़' ये दिल्ली की गलियां छोड़ कर

है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त 'असद'
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खाएँगे क्या?

ऐ वाए इंक़लाब ज़माने के जौर से
दिल्ली 'ज़फ़र' के हाथ से पल में निकल गई

तज़्किरा देहली-ए-मरहूम काऐ दोस्त न छेड़
न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़ 
..... हाली..... 

हज़ारों लाखों दिल्ली में मकां हैं 
मगर पहचानने वाले कहाँ हैं 
..... मोहम्मद अल्वी..... 

दिल की बस्ती भी शहर-ए-दिल्ली है
जो भी गुज़रा है उसने लूटा है
..... बशीर बद्र..... 





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