शहर में जो भी हुआ है वो ख़ता मेरी है
ये जो है ख़ाक का इक ढेर बदन है मेरा
वो जो उड़ती हुई फिरती है क़बा मेरी है
वो जो इक शोर सा बरपा है अमल है मेरा
ये जो तन्हाई बरसती है सज़ा मेरी है
मैं न चाहूँ तो न खिल पाए कहीं एक भी फूल
बाग़ तेरा है मगर बाद-ए-सबा मेरी है
एक टूटी हुई कश्ती सा बना बैठा हूँ
न ये मिट्टी न ये पानी न हवा मेरी है
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