तुम को देखें कि तुम से बात करें
फ़िराक़ गोरखपुरी
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
मिर्ज़ा ग़ालिब
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करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
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दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया
मीर तक़ी मीर
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गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इश्क़ माशूक़ इश्क़ आशिक़ है
यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़
मीर तक़ी मीर
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उस ने अपना बना के छोड़ दिया
क्या असीरी है क्या रिहाई है
जिगर मुरादाबादी
क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर
क्या तिरे आशिक़ हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम
नज़ीर अकबराबादी
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यूँ इतने हिजाबों में मिलें
अहमद फ़राज़
इश्क़ में मौत का नाम है ज़िंदगी
जिस को जीना हो मरना गवारा करे
कलीम आजिज़
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ना-कामी-ए-इश्क़ या कामयाबी
दोनों का हासिल ख़ाना-ख़राबी
हफ़ीज़ जालंधरी
काबे से ग़रज़ उस को न बुत-ख़ाने से मतलब
आशिक़ जो तिरा है न इधर का न उधर का
शाह नसीर
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
मीर तक़ी मीर
बातें नासेह की सुनीं यार के नज़्ज़ारे किए
आँखें जन्नत में रहीं कान जहन्नम में रहे
अमीर मीनाई
सौ बार बंद-ए-इश्क़ से आज़ाद हम हुए
पर क्या करें कि दिल ही अदू है फ़राग़ का
मिर्ज़ा ग़ालिब
तड़पती देखता हूँ जब कोई शय
उठा लेता हूँ अपना दिल समझ कर
मुंशी अमीरुल्लाह तस्लीम
हो गया ज़र्द पड़ी जिस पे हसीनों की नज़र
ये अजब गुल हैं कि तासीर-ए-ख़िज़ाँ रखते हैं
इमाम बख़्श नासिख़
बस मोहब्बत बस मोहब्बत बस मोहब्बत जान-ए-मन
बाक़ी सब जज़्बात का इज़हार कम कर दीजिए
फ़रहत एहसास
ता-फ़लक ले गई बेताबी-ए-दिल तब बोले
हज़रत-ए-इश्क़ कि पहला है ये ज़ीना अपना
जुरअत क़लंदर बख़्श
ख़्वाह दिल से मुझे न चाहे वो
ज़ाहिरी वज़्अ' तो निबाहे वो
अनवर शऊर
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