दान की हुई गौ, राजा की गौशाला में आन।।
मिली,भेंट की अन्य विप्र को, अपनी ही
गौ मान ।
गौ के दोनों मालिक मिले, करी गौ की पहचान ।
जितनी चाहो, इस गौ के बदले, दे दूँगा दान।
विप्रों ने गौ-विक्रय को, माना गौ का अपमान।।
दोनों ने राजा के पास, दिया उस गौ को छोड़।
नृप ने देह-त्याग की, आया यहीं कथा में मोड़।।
गिरगिट बन जन्मे नृग, था वह कूप द्वारिका पास।
बच्चों ने देखा तो चाहा, कर लेंगे उल्लास।।
नहीं निकाल सके, तो पहुँचे कृष्णचंद्र के द्वार।
हरि का मात्र स्पर्श, कर गया गिरगिट का उद्धार।।
दिव्य देह दे कर, केशव ने लिया सहज निश्वास।
श्री हरि ने नृग राजा को,दे दिया स्वर्ग में वास।।
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