निर्धन माता पुत्र को लाई गुरु के पास।
आप इसे शिक्षा देंगे यह है मुझको विश्वास।।
पति मेरे गुरुभाई भी थे और आपके मित्र।
जब हालत बिगड़ी तो बोले इसे पढ़ाए मित्र।।
और किसी के पाठन पर मुझको विश्वास नहीं है।
वही पढ़ाए समय अधिक अब मेरे पास नहीं है।।
तब तक तुम श्री कृष्णचंद्र की प्रतिदिन कथा सुनाओ।
जागे हरि में प्रीत भागवत गा कर इसे सुनाओ।।
बालक के घर से गुरु जी का घर था लेकिन दूर।
जंगल रस्ते में घना पर माँ थी मजबूर।।
माधव को तू याद कर वो दे देंगे साथ।
वही सहारा हैं जो आएँ सदा प्रेम के हाथ।।
बालक ने जंगल में जाकर एक गुहार लगाई।
हमको साथ खेलना है अब आ भी जाओ भाई।।
प्रतिदिन माधव लेकर उसको आते गुरु के द्वार।
बड़े प्रेम से बालक तकता उनको जाती बार।।
कल गुरु के घर श्राद्ध है सब लाएँगे भेंट।
मेरे भी मन में है मैं भी दूँ उन को कुछ भेंट।।
माधव बोले मैं तुझ को भी दे दूँगा एक पात्र।
उसमें होगा दही वही दे देगा उनका छात्र।।
गुरु के घर में चहल पहल थी रखे सभी उपहार।
इक बर्तन में उलटो फिर तुम करो अतिथि सत्कार।।
भर गए बर्तन सारे पर नहीं रिक्त हुआ वह पात्र।
इसी पात्र से आज परोसो तुम सबको दधि छात्र।।
जो खाए सो फिर फिर माँगे दधि का ऐसा स्वाद।
बोले सारे, हमें रहेगा सदा दही यह याद।।
गुरु ने भी खाया तो वे भी हो गए आत्म विभोर।
मिला कहाँ से तुझे दही यह दिखला दे वह ठौर।।
बालक गुरु को साथ लिए आया जंगल के पास।
माधव आए पर नहीं गुरु लख पाए, हुए उदास।।
तेरे गुरु के हृदयस्थल में नहीं प्रेम का वास।
ज्ञान भरा है किंतु दर्प का भी तो है अहसास।।
मैं तो भूखा प्रेम का नहीं ज्ञान की चाह।
कह दो गुरु से ये चले जाएँ अपनी राह।।
पैर पकड़ कर बालक के तब गुरुजी जी भर रोए।
उन ने भी तब देखे माधव दर्प भाव जब धोए।।
तान सुनी फिर मुरलीधर की, देखा गौ का साथ।
राधा देखीं, गोपी देखीं, गुरु ने नाया माथ।।
बेटा तेरे कारण मैंने भी हरिदर्शन कीन्हा।
धन्य तुम्हारे मात पिता जो प्रेम मार्ग यह चीन्हा।।
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