Friday, 14 July 2023

पंडित विद्या रतन 'आसी' केअश'आर

कभी रंज-ओ-ग़म है, कभी बे-कसी है
मेरी ज़िंदगी भी अजब ज़िंदगी है

मुहब्बत में जीना, मुहब्बत में मरना
मेरी ज़िंदगी का अक़ीदा यही है

दुनियादारी निभा तो सकते थे
दिल ही सीने में दूसरा न हुआ

दरहम-ओ-बरहम है नज़्म-ए-ज़िंदगी
ऐ ग़म-ए-दौराँ तेरा खाना ख़राब

जैसे माहौल में जिए हमलोग
आप होते तो ख़ुदकुशी करते

अभी कोई सितम टूटा, अभी कोई बला टूटी
रहा जब तक मैं ज़िंदा, बस यही ख़दशा रहा दिल में

मुहब्बत किसको रास आई?
मैं, जीता-जागता हूँ ना!

मुहब्बत पे तेरा ये एहसान होगा
मुहब्बत में जी से गुज़र जाने वाले

ये बहारें, ये चमन ये आशियाँ मेरे लिए
सर-ब-सर साबित हुए आज़ार-जाँ मेरे लिए

अब तबीयत मुश्किलों से इस क़दर मानूस है
फ़स्ल-ए-गुल से कम नहीं है दौर-ए-ख़िज़ाँ मेरे लिए

कौन सी है वो मुसीबत मुझ पे जो टूटी नहीं
रात-दिन ग़र्दिश में हैं हफ़्तआसमाँ मेरे लिए

फिर भी ज़िंदा हैं हम जमाने में
हर जफ़ा उसने तोड़ ली हम पर

देखिए कब तक न हों, कामराँ ऐ दोस्त हम
बख़्त हम से सरगराँ देखिए कब तक रहे

ये अपनी हिम्मत थी हम हर मौज-ए-बला से पार हुए
खेल बहुत दिलदोज़ थे वरना जो तक़दीर ने खेले हैं

ज़रा सा आदमी हूँ / बला का आदमी हूँ
निहायत कम हूँ इन्साँ / ज़ियादा आदमी हूँ
ख़ुदा वाले तो तुम हो / मैं सीधा आदमी हूँ
न आदी अंत मेरे / अजन्मा आदमी हूँ

आप क़ाबिल तो हैं / दोस्ती के नहीं
तेरा मेरा मिलन / अब्र बरसा, गया
इसलिए आज तक नहीं देखे / ख़्वाब होते हैं ख़्वाब, था मालूम
बस कि रिसता रहे / ज़ख्म ऐसा लगा

इक ओहदे रूप दी धूप तिखेरी
दूजा महकाँ दा तिरहाया. शिव बटालवी

तीजा उसका रंग गुलाबी
ओ किसी गोरी माँ दा जाया. शिव बटालवी

दोज़ख़ से जन्नत मुंतक़िल
आसी मरा थोड़े ही है

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