हैं कई हिज्र दरमियाँ जानाँ
राएगाँ वस्ल में भी वक़्त हुआ
पर हुआ ख़ूब राएगाँ जानाँ
मेरे अंदर ही तो कहीं गुम है
किस से पूछूँ तिरा निशाँ जानाँ
आलम-ए-बेकरान-ए-रंग है तू
तुझ में ठहरूँ कहाँ कहाँ जानाँ
मैं हवाओं से कैसे पेश आऊँ
यही मौसम है क्या वहाँ जानाँ
रौशनी भर गई निगाहों में
हो गए ख़्वाब बे-अमाँ जानाँ
दर्द-मंदान-ए-कू-ए-दिलदारी
गए ग़ारत जहाँ तहाँ जानाँ
अब भी झीलों में अक्स पड़ते हैं
अब भी नीला है आसमाँ जानाँ
है जो पुर-ख़ूँ तुम्हारा अक्स-ए-ख़याल
ज़ख़्म आए कहाँ कहाँ जानाँ
No comments:
Post a Comment