हल्की लाली उषा की पश्चिम में
दूर तक काला घना जंगल है
दूधिया सामने हैं यूक्लिप्टस
एक ऊँचा सा मानवी करतब
जिसमें बिजली गुज़र रही होगी
यूक्लिप्टस के बीच ऐसे खड़ा
अपने होने का दिलाता अहसास
आते-जाते सड़क पे जो वाहन
रात का चीरते हैं सन्नाटा
सामने घर है रेंज अफ़सर का
मिल चुका हूँ मैं उससे आफ़िस में
बाएँ है तुरबतों का इक फैलाव
जानता हूँ यहाँ सुकूँ होगा
बढ़ रहा है ये शहर हर जानिब
फिर भी इस जा नहीं ऊँचा होगा
सामने गहरा काला जंगल है
इस पे भी कोई हाथ न डाले
मैं इसी घर में रहना चाहूँगा
ये शहर इक पठार पर है बसा
घर में मेहमान बच्चा पूना से
मुल्क में दो ही जगह हैं शायद
खुशगवार होता है जहाँ मौसम
ख़्वाह गर्मी हो सर्दी या बारिश
जानता हूँ कि मेरे दोस्त कई
झेल कर सख़्त थपेड़े लू के
घर से बाहर न निकलते होंगे
अभी बोला है पास ही बुलबुल
मर्द पक्षी की कर्णप्रिय आवाज़
मोर की ध्वनि सुनाई देती है
ये भरम शायरी में फैला है
इसको विज्ञान तोड़ ही देगा
मोरनी से है मोर ही सुंदर
मादा बुलबुल मटमैली है
बचपन में दाने डालने के लिए
धर्मशाला की छत पे जाते थे
चुगने आते थे कबूतर और मोर
खड़े रहते थे थोड़ी दूर पर
दाने चुगने के बाद भी इक मोर
साथ दो-तीन मोरनी रहतीं
कभी-कभी वो नाचने लगता
(मानो एहसाँ का बदला देता हो)
मोरनी चाहती हों देख सकें
उसकी रंगीन छटा आगे से
घूम जाता था पीठ कर के मोर
अपने ही वंश चलाने के लिए
सारे पंछी ही नाचते जग में
अपनी मादा को रिझाने के लिए
बया बुनता है ख़ुब मेहनत से
घोंसला आ के देखती मादा
अच्छा लगने पे बैठ जाती है
वर्ना वो दूसरा बनाता है
फिर से बोला है पास ही बुलबुल
एक जोड़ा हमारे बाग़ में भी
पेड़ पर आ के बैठ जाता था
जब कभी फल लगे हुए होते
अपनी यादों की ओढ़ कर चादर
बैठा कुर्सी पे लिख रहा हूँ मैं
मैंने पंखे को चलाया ही नहीं
शुक्र कैसे अदा करूँ भगवन
मुझ से ये ढंग से नहीं होता
रवि मौन
बुधवार सुब्'अ
तारीख़ याद नहीं
वक़्त देखा नहीं
बहुत सुंदर वर्णन, अति सुंदर प्रकृति चित्रण
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