नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्।।
अष्टावक्र महागीता एकादश प्रकरणः. ज्ञानाष्टक
हिन्दी पद्यानुवाद रवि मौन
न तो मैं शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है।
मैं तो विशुद्ध बोध हूँ यह सत्निश्चय मेरा है।
कृत-अकृत को भुला कर जब इच्छा हों दूर।
नर विदेह इस से बने रहे देह भरपूर।।
रूह पहचान हमारी है, जिस्म भंगुर है
ReplyDeleteफूट पड़ता है इंसां का इसमें अंकुर है
संवारा जिसने भी इसको वो कामयाब रहा
ख़ुदा के पास जो पहुँचेगा यही सबकुछ है
(Simin Usmani)