Poet of Hindi, Urdu, English, Bengali and Punjabi. I also translate gems of Urdu poetry. Orthopedic surgeon.
Saturday, 1 February 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई... ख़ार-ए कि बज़रे-पा-ए-हैवानेस्त....
Friday, 31 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई.... न लायके-मस्जिदम न दर ख़ुरद किनिश्त......
Thursday, 30 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई... दर इश्क़ ज़ सदगूना मलामत बकुशम....
Wednesday, 29 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई... मक्सूद ज़ जुम्लः आफ़रीनश मायेम....
Tuesday, 28 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई.... मय ख़ुर्दन-मन न अज़ बरा - ए-त्रस्त.....
Monday, 27 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई... गोयन्द म रा कि मयपरस्तम हस्तम.....
Sunday, 26 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई... मय बर कफे - मा नह कि दिलम दर ताब अस्त......
Saturday, 25 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई.... रोज़े कि ज़ तू गुज़श्तः.....
Friday, 24 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई.... शुद दावा-ए-दोस्ती दरीं....
Thursday, 23 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई मय ख़ुर्दन न शाद बूदन.....
Wednesday, 22 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई
Tuesday, 21 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई बा नफ़्स हमेशा दर नबर्दम....
भजन..... रवि मौन
Monday, 20 January 2025
उमर ख़य्याम की रुबाई. या रब तू गिलम सिरिश्तः......
Sunday, 19 January 2025
मंकुतिम्मा ना कग्गा
'मंकुतिम्मा ना कग्गा'
कवि परिचय:
डॉ देवनाहल्ली
वेंकटरमणय्या गुंडप्पा अथवा डि. वि. गुंडप्पा अथवा कन्नडिगा लोगों द्वारा प्यार से
डि. वि. जि. बुलाए जाने वाले श्रीयुत सन् १८८७ की १७वीं मार्च को कर्नाटक राज्य के
कोलार जिले के मुलबागिलु में जन्मे।
बहुमुखी
व्यक्तित्व के धनी, मेधावी और प्रतिभाशाली डि. वि. जि. अपने जीवनकाल में पत्रकार, संपादक,
व्यक्ति जीवनचरित्रकार, कवि, साहित्यकार इत्यादि होते
हुए भी बहुत विनम्र और निष्ठावान होने के कारण सभी पीढ़ी के लोगों के आदर्श हैं।
यद्यपि डि. वि. जि. की शिक्षा उच्च
विद्यालय में ही रुक गई थी, मगर उन्होंने वेदों का और कन्नड़, अंग्रेजी, संस्कृत व तेलगु
भाषाओं की अनेक श्रेष्ठ कृतियों का अध्ययन किया। स्वामी विवेकानंद और
कई स्वतंत्रता सेनानियों के भाषणों से ये प्रभावित थे। मुख्यतः गोपाल कृष्ण गोखले जी
की विचारधारा और व्यक्तित्व के कारण उनके प्रति पूज्य भावना रखते थे। आगे चल कर उन्होंने
'गोखले सार्वजनिक विचार संस्था' के नाम से एक संस्था की भी स्थापना की जो अब तक क्रियाशील है।
गुंडप्पा जी कई पत्रिकाओं में पत्रकार, कई में संपादक
थे और उन्होंने स्वयं कई पत्रिकाओं को प्रारंभ कर निर्वाहित किया।
कन्नड़ के ही नहीं बहुशः भारत के अत्याद्भुत साहित्यकारों
में एक डि. वि. जि. की उत्कृष्ट कृतियों में 'अंतःपुर गीते', मननकाव्य 'मंकुतिम्मा
ना कग्गा', अनेक जीवन चरित्र, शेक्सपीअर का 'मैक बेत', टेनिसन का 'दि कप' के अनुवाद मुख्य हैं।
उनके द्वारा रचित राजकीय, धर्म और संस्कृति संबंधित
निबंध प्रथम श्रेणी के हैं।
उन्होंने ५० से अधिक पुस्तकों की रचना की जिनमें कुल
मिला कर ८००० से भी अधिक पृष्ठ हैं।
उनकी सभी साधनाओं को देखते हुए मैसूर विश्वविद्यालय
ने १९६१ ई. में उन्हें ' दि लिट्' की पदवी प्रदान की। सन् १९७४ में भारत सरकार ने उन्हें
देश के श्रेष्ठ सम्मान 'पद्मभूषण' से सम्मानित किया।
डि. वि. जि. ने अपने जीवनकाल में अनेक महान लोगों
के साथ काम किया और उनके आदर-सम्मान के पात्र बने। पर कभी उनके प्रभाव का उपयोग अपने
व्यक्तिगत कार्य के लिए नहीं किया। अपनी सेवाओं के लिए उन्होंने कभी
किसी से धन की अपेक्षा नहीं की। उनके लिए एक बार सार्वजनिक रूप से १ लाख
रुपए एकत्रित किये गए। उन्होंने उसे गोखले संस्था को दान स्वरूप दे दिया। इसी प्रकार
अनेक बार उन्होंने अपनी पारितोषित धनराशि दान में दी।
अंततः अपनी सभी कृतियों का अधिकार संस्था को सौंप
कर जाने वाले प्रज्ञ नायक थे डि. वि. जि.।
ऑक्टोबर ७, १९७५ को पत्रकार, साहित्यकार, राजकीय विश्लेषक,
अद्भुत मेधावी, गोखले संस्था के संस्थापक गुंडप्पाजी हम सभी को छोड़ कर चले गए।
मंकुतिम्मा
ना कग्गा:
डि. वि. जि. की अत्यंत प्रसिद्ध कृतियों में से एक है 'मंकुतिम्मा
ना कग्गा'. इसकी गहराई और विस्तार को नापना बहुत कठिन और संभवतः असाध्य है। इसके सृजन को सात दशक से अधिक हो गए हैं, उसके पश्चात भी साहित्यप्रियों की इसके प्रति तृष्णा शान्त नहीं हुई है। ऐसा कहना असत्य नहीं होगा कि कन्नड़ साहित्य में आसक्ति रखने वालों की कन्नड़ की उत्कृष्ट कृतियों की सूची में संभवतः 'मंकुतिम्मा
ना कग्गा' का स्थान सर्वप्रथम होगा। कर्नाटक के लोग इस कृति का आस्वादन पढ़ने में ही नहीं, अपितु नित्यपारायण, गायन, नृत्य, नाटक इत्यादि विभिन्न रूपों में करते हैं। इस पर आधारित अनेकानेक उपन्यास-प्रवचन के कार्यक्रम और व्याख्यान हुए और आज भी हो रहे हैं। श्रद्धापूर्वक अनेक लोग इसे कन्नड़ की भगवद्गीता मानते हैं। इस कृति को उस स्तर का मौल्य मिलना पूर्णतः उचित है।
शीर्षक का अर्थ:
साधारणतः कन्नड़ भाषा में मंकुतिम्मा पद का प्रयोग मंदबुद्धि, मूर्ख, मूढ़, जड़मति की भांति अवहेलना के लिए किया जाता है। उस अर्थ में इस शीर्षक को रखने पर भी केवल यही एक अर्थ नहीं है। गुंडप्पाजी की प्रतिभा बहु-सूच्य है। इस शीर्षक के पीछे और गहन अर्थ भी हैं।
मंका-तिम्मा कग्गा इन तीन शब्दों की दृष्टि से देखें तो मंका/मंकु ध्यानशीलता को दर्शाता है, अंतर्मुखी होना भी इसका पर्यायवाची कहा जा सकता है। विशेषतः सदा ध्यानमग्न रहने वाले शिव को भी इस नाम से बुलाया जाता है। तिरुमाले-अप्पा (तिरुमला के स्वामी) के संक्षिप्त रूप तिम्मप्पा के और संक्षिप्त रूप से तिम्मा शब्द बना है। अर्थात् ये नारायण का नाम है। कग्गा शब्द का प्रयोग अर्थ नहीं निकलने वाली पहेली रूपी बातों के स्थान पर किया जाता है।
शिव-केशव की पहेली जैसी बातें एक अर्थ है, किसी एक मंकु-तिम्मा द्वारा कही हुई निरर्थक बातें भी एक अर्थ है।
यह गुंडप्पाजी के शब्दों में एक मननकाव्य है, अर्थात स्वयं ही स्वयं से कह कर मनन करने वाले विचारों का काव्य। यहाँ गुंडप्पाजी मंकुतिम्मा शब्द का प्रयोग
स्वयं के लिए ही कर रहे हैं।
वस्तु विचार:
इस कृति के विषयवस्तु के संबंध में चार वस्तुओं को
देख सकते हैं-
अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ।
अध्यात्म- हमारा शरीर, चेतना, गहरी संवेदनाएं
अधिभूत- भैतिक प्रपंच, दृष्टिगोचर लोक
अधिदैव- हमारी श्रद्धा, विश्वास, भाग्य, देवों के
प्रति विचार
अधियज्ञ- इन तीनों को जोड़ने वाला साधन
ये चारों ही कग्गा की विषयवस्तु हैं। हर काल में मानवकुल के वांछित विषय होने के कारण कग्गा देश, काल आदि सीमाओं से परे है। हमारा जीवन जब तक है, हमारी भावनाएं जब तक हैं, हमारा अतित्व जब तक है, इस जगत का अस्तित्व जब तक है, तब तक कग्गा संगतपूर्ण रहेगा। ये सार्वकालिक, सार्वदेशीय और सार्वजनिक है।
"ಇದು ಪಂಡಿತರನ್ನೂ, ಪ್ರಸಿದ್ಧರನ್ನೂ, ಪುಷ್ಟರನ್ನೂ ಉದ್ದೇಶಿಸಿದ್ದಲ್ಲ. ಬಹು ಸಾಮಾನ್ಯರಾದವರ ಮನೆಯ ಬೆಳಕಿಗೆ ಇದು ಒಂದು ತೊಟ್ಟಿನಷ್ಟು ಎಣ್ಣೆಯಂತಾದರೆ ನನಗೆ ತೃಪ್ತಿ"
अर्थात- यह पंडितों, प्रसिद्ध व्यक्तियों, सर्वसम्पन्न
व्यक्तियों के उद्देश्य से नहीं लिखा गया है। अत्यंत साधारण मनुष्यों के घर के दीपक
में एक बूँद तेल की भांति यह हो तो मुझे संतुष्टि होगी। - डि. वि.
गुंडप्पा (मंकुतिम्मा ना कग्गा के विषय में उनकी उक्ति)
अनुवादक की
लेखनी से:
मैं मूल रूप से एक चिकित्सक हूँ। मुझे भाषाओं से
प्यार है। चाहता हूँ कि किसी भाषा की उत्कृष्ट काव्य कृति का दूसरी भाषा में रूपान्तरण
करूँ। इस के लिए उस भाषा के मर्मज्ञ का सहारा चाहिए।
मेरा सौभाग्य है कि श्री प्रदीप श्रीनिवासन खाद्री
जी मिले और मेरा परिचय इस पुस्तक 'मंकुतिम्माना कग्गा' से करवाया। अब वे मुझे हर कग्गा
को हिंदी में समझा रहे हैं जिससे कि मैं इसका हिंदी में काव्यानुवाद कर सकूँ। इस पुस्तक
की रचना में उनका योगदान मुझसे बहुत अधिक है। आभार प्रकट करने योग्य शब्द मेरे पास
नहीं हैं।
यह जानते हुए भी कि मूल रचना का स्तर अनुवाद से बहुत
ऊँचा होता है मैं प्रयासरत रहता हूँ।
मूल पुस्तक में गुंडप्पाजी ने हर कग्गा का समापन
'मंकुतिम्मा' पद से किया है। हिन्दी में मैंने इसका समानांतर पद 'भोलेराम' मानकर अनुवाद
में इसका प्रयोग किया है। मंकुतिम्मा की ही भाँति भोलेराम का अर्थ भोला, मंदबुद्धि
व्यक्ति हो सकता है अथवा भगवान शिव को भोलेभंडारी कहा जाता है और राम भगवान विष्णु
का रूप हैं। उस दृष्टि से भी ये हर और हरि की अभिव्यक्ति का स्वरूप है।
इस पुस्तक का मूल भाव वही रहे जो गुंडप्पाजी ने कहा
है, यही मेरा प्रयास है। एक भाषा का साहित्य अन्य भाषा में उपलब्ध हो तो यह भाषाओं
को जोड़ने वाले सेतु का कार्य करेगा। इसी आकांक्षा को लिए यह पुस्तक आपके सामने प्रस्तुत
है।
-रवि मौन
मंकुतिम्मा ना कग्गा
1. श्री विष्णु विश्वादि मूल, निज माया आसक्त।
परब्रह्मा, सर्वेश, देव ये नाम दे रहे भक्त।
बिन देखे भी श्रद्धा से ही, जपते जिसका नाम।
उस विचित्रता को नमन कर लो भोलेराम।।
- - - - - - मंकुतिम्मा - - - - - -
2.
जड़ चेतन का अखिल सृष्टि में होता है विस्तार।
करे आवरण इस का औ' भीतर भी है संचार।
अप्रमेय है भाव तर्क से परे, सुना अविराम।
उस विषेशता के आगे, झुक जाओ भोलेराम।।
3. होने या न
होने का जो देता न संधान।
निज महिमा
से जग भी बने, डाली जिसने जान।
मंगलमय है
शक्ति वो विहार करे चहुँधाम।
निश्चित कर
उस गहन तत्व को शरणो भोलेराम।
खण्ड- क्या
जीवन का अर्थ: (
4. क्या प्रपंच
का अर्थ है, औ' क्या है जीवन?
इन दोनों के
बीच का क्या है निज बंधन?
क्या है कोई
अगोचर यहाँ, जिसने बनाया धाम?
इन्द्रियों
का प्रमाण हम मानें क्या भोलेराम?
5.
है देव क्या गहन अंधियारे गह्वर का एक नाम?
या जो न बूझे जाते उनको देते हम यह नाम?
रक्षक कोई जगत का तो इस गति का क्या काम?
क्या है जन्म, मृत्यु क्या? समझा भोलेराम ||
6. क्या है सृष्टि पहेली सुन्दर? जीवन समझ के पार |
कौन भला समझाए इसका अर्थ सह विस्तार |
सर्जनकर्ता एक तो भिन्न मानव क्यों
अविराम?
जीवगति है अलग भला क्यों, बतला भोलेराम ||
7. जीवन का अधिनायक
कौन, एकल या कि अनेक?
अंधबल कि विधि
या पौरुष, या है धर्म की टेक?
ठीक हो अव्यवस्था
का जाने कैसे आयाम?
तपन सहन करना
ही जीव-गति क्या भोलेराम?
8.
क्रम व लक्ष्य के ध्यान से क्या, किया सृष्टि निर्माण?
या फिर हो
कर दिग्भ्रमित, डाले इस में प्राण?
सर्जनकर्ता
सृष्टि के यदि ममता के धाम |
जीव राशि को
कष्ट भला क्यों होता भोलेराम?