गर साकिने-ए-मस्जिद व गर ज़ अहले-किनिश्त
दर दफ़्तरे-इश्क़ नामे-हरकस कि अविस्त
आज़ाद ज़ दोज़ख़स्त न फ़ारिग़ ज़ बिहिश्त
गुँथा हुआ हर वो दिल जिसमें हो करुणा, प्यार।
मस्जिद का वासी मन्दिर वालों में ही है यार।
लिखा प्यार की पोथी में जिस भी इंसाँ का नाम।
स्वर्ग, नरक से वो आज़ाद हो गया है ऐ यार।।
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