Friday, 17 January 2025

GHAZAL... HAFIZ SHIRAZI

अगर आँ तुर्के-शीराज़ी बदस्त आरद दिले-मारा
ब ख़ाले-हिन्दवश बख़्शम समरक़न्दो-बुख़ारा रा

हाथों में अपने लेले गर महबूब दिल हमारा 
बख़्शूँ उसके काले तिल पर समरक़न्द-ओ'बुख़ारा

बे दहे साक़ी ये-बाक़ी कि दर जन्नत न ख़्वाही याफ़्त 
कनारे-आबे-रुक्नाबाद व गुलगश्ते- मुसल्ला रा

दे साक़ी जो है मय बाक़ी, जन्नत में न मिलेंगे
मुसल्ला का गुलशन, रुक्नाबादी नदी कनारा

फ़ुगाँ कि ईं लुलियाने-शोख़ शीरीं कार शहर आशोब
चुनाँ बुर्दन्द सब्र अज़ दिल की तुर्काख़्वाने-यामारा

शीरीं, शोख़, शरारती , शहर करें सुनसान 
तुर्की डाकू के मानिंद जो लूटे सब्र हमारा

नसीहत गोश कुन जानाँ कि अज़ जाँ दोस्ततर दारंद
जवानाने-सआ'दतमन्द पन्दे-पीरे-दाना रा

खुशकिस्मत नौजवाँ मानते समझदार बूढ़ों की बातें 
सीख हमारी सुन ले प्यारे प्राण से प्रिय ये ज्ञान हमारा 

ज़ इ'श्के-नातमामे-मा जमाले-यार मुस्तग़्नीस्त
ब आबो-रंगो-ख़ालो-ख़त चि हाजत रू-ए-ज़ेबारा

हसीं चेहरा न चाहे रोगन, रंग, सिंगार न कोई तिल
मुकम्मल हुस्न के सानी है इश्क़ कंगाल हमारा

बदम गुफ़्ती व खुर्सन्दम अफ़ाकुल्लाह नकू गुफ़्ती
जवाबे-तल्ख़ मी ज़ेबद लबे-ला'ले- शकर ख़ारा

सुर्ख़ लबों से तल्ख़ बात भी मीठी ही लगती हैं 
गाली भी दोगी तो करना है शुक्रिया तुम्हारा

मन अज़ आँ हुस्ने-रोज़ अफ़जूँ कि यूसुफ़ दाश्त दानस्तम
कि इश्क़ अज़ पर्दः-ए-अस्मत बरूँ आवर्द ज़ुलैख़ा रा

रुकेगी कब तलक वो, रोज़ बढ़ता रूप यूसुफ़ का
  ज़ुलैख़ा तज पर्दः ए अस्मत, न रह पाएगा दोबारा

हदीस अज़ मुत्रिबो-मय गोई व राज़े-दहर कमतर जू
कि कस नकशूदो-न कशायद ब हिकमत ई मुअ'म्मा रा

ना दिमाग़ से गुत्थी ये सुलझी है ना सुलझेगी
बात करो साज़ो-मय की ये जग जंजाल पिटारा

ग़ज़ल गुफ़्ती व दुर सुफ़्ती बेया-ब-ख़ुश-बख़्वाँ 'हाफ़िज़' 
कि बर नज़्मे-तू अफ़्शानद फ़लक उ'क़्दे सुरय्यारा

ग़ज़ल के मोती मीठे सुर में बिखराया कर 'हाफ़िज़' 
हार छिड़कता कृतिका के ये आसमान बेचारा










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