जमए मुतहय्यैर अन्द दर शक़ो-यक़ीं
नागाह मुनादीह - आमद ज़ कमीं
का-ए-बेख़बराँ राह न आनस्त व न ईं
परेशाँ है क़ौम मज़हब दीन में क्या है सही
शुरू से ही शक, यक़ीं के दायरे में ये रही
हो गई है अब मुनादी किसी गुफ़िया जगह से
बेख़बर है तू, सही न ये है और न वो सही
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